अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

रिलायंस द्वारा ओएनजीसी के गैस भंडार से 30 हजार करोड़ की डकैती

 अन्तर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में सरकार की हार

1 अगस्त 2018 को आंध्र के कृष्णा–गोदावरी बेसिन में ओएनजीसी के गैस भंडार में सेंध लगाकर रिलायंस द्वारा 30 हजार करोड़ रुपये की प्राकृतिक गैस चुराने के मामले में अन्तरराष्ट्रीय मध्यस्थता पैनल का फैसला आ गया। यह पैनल जो रिलायंस और मोदी सरकार की सहमति से चुना गया था। उसने ओएनजीसी की शिकायत को रद्द कर रिलायंस से 10 हजार करोड़ रुपये का जुर्माना हटा दिया है जो 2016 में जस्टिस एपी शाह आयोग द्वारा रिलायंस को दंडित करने की सिफारिश के चलते सरकार को लगानी पड़ा था। इस पर भी तुर्रा यह कि ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया है कि अब सरकार को ही हरजाने के तौर पर लगभग 50 करोड़ रुपये रिलायंस को देने होंगे।

आंध्र प्रदेश की दो प्रमुख नदियाँ कृष्णा और गोदावरी के डेल्टा क्षेत्र में स्थित कृष्णा–गोदावरी (केजी) बेसिन कच्चे तेल और गैस की खान माना जाता है। 1997–98 में सरकार न्यू एक्सप्लोरेशन और लाइसेंस पॉलिसी (नेल्प) लेकर आयी। इस पॉलिसी का मुख्य मकसद तेल खदान क्षेत्र में लीज के आधार पर सरकारी और निजी क्षेत्र की कम्पनियों को एक समान अवसर देना था। इस पॉलिसी से रिलायंस का प्रवेश तेल और गैस के अथाह भंडार वाले इस क्षेत्र में हो गया। रिलायंस ने इन तेल क्षेत्रों में अपना अधिकार बनाना शुरू किया, जहाँ ओएनजीसी पहले से तेल–गैस निकाल रही थी। धीरे–धीरे रिलायंस ने यह कहना शुरू किया कि उसे इस क्षेत्र में करोड़ों घनमीटर प्रतिदिन उत्पादन करने वाले कुएँ मिल गये हैं। इन खबरों से रिलायंस के शेयर आसमान पर जा पहुँचे। 2008 में रिलायंस ने तेल और अप्रैल 2009 में गैस का उत्पादन शुरू किया।

लेकिन हकीकत यह थी कि रिलायंस को अपनी घोषणाओं के विपरीत बेहद कम तेल और गैस इन क्षेत्रों से प्राप्त हो रही थी। पास के क्षेत्र में स्थित ओएनजीसी अपने कुओं से भरपूर मात्रा में तेल–गैस का उत्पादन कर रही थी।

2011 में केजी बेसिन में रिलायंस इंडस्ट्रीज की परियोजना से गैस उत्पादन में गिरावट आयी और सरकार ने रिलायंस को गैर–प्राथमिक क्षेत्रों से गैस की आपूर्ति बन्द करने का आदेश दिया। लेकिन रिलायंस ने इस्पात उत्पादन करने वाले समूहों को साथ में लेकर सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। पेट्रोलियम मंत्रालय और रिलायंस में यह विवाद गहराता चला गया। पेट्रोलियम मंत्रालय का कहना था कि रिलायंस को कैग द्वारा ऑडिट कराना होगा, लेकिन रिलायंस इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने इस क्षेत्र में अपने वादे के मुताबिक अरबों करोड़ रुपये का निवेश करने से इनकार कर दिया

रिलायंस कम्पनी ने यह शर्त भी रखी कि लेखा परीक्षा उसके परिसर में होनी चाहिये और इस रिपोर्ट को पीएससी के तहत पेट्रोलियम मंत्रालय को सौंपी जाये, संसद को नहीं। सप्रंग सरकार में भी मुकेश अम्बानी की रिलायंस इतनी पॉवरफुल थी कि कहा जाता था कि मुकेश अम्बानी की मर्जी से पेट्रोलियम मंत्री हटाये और बहाल किये जाते थे।

इस बीच 2013 में रिलायंस और ओएनजीसी के बीच गैस चोरी को लेकर विवाद की थोड़ी–थोड़ी भनक मिलनी शुरू हो गयी थी।

मई 2014 में भारत में लोकसभा के चुनाव हुए थे। अब इस लेख का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा आपके सामने आना वाला है वो है इस केस की टाइमिंग। आपको याद होगा कि 16 मई को यह फैसला आने वाला था कि सत्ता किसके हाथ लगने वाली है। भाजपा सरकार बनने से ठीक एक दिन पहले ओएनजीसी ने 15 मई, 2014 को दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मुकदमा दायर किया जिसमें यह आरोप लगाया कि रिलायंस इंडस्ट्रीज ने उसके गैस ब्लॉक से हजारों करोड़ रुपये की गैस चोरी की है।

ओएनजीसी का कहना था कि रिलायंस ने जानबूझकर दोनों ब्लॉकों की सीमा के बिलकुल करीब से गैस निकाली, जिसके चलते ओएनजीसी के ब्लॉक की गैस आरआईएल के ब्लॉक में आ गयी।

ओएनजीसी के चेयरमैन डीके सर्राफ ने 20 मई 2014 को अपने बयान में कहा कि ओएनजीसी ने रिलायंस इंडस्ट्रीज के खिलाफ जो मुकदमा दायर किया है, उसका मकसद अपने व्यावसायिक हितों की सुरक्षा करना है क्योंकि रिलायंस की चोरी के चलते उसे लगभग 30,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

लेकिन चिड़िया खेत चुग चुकी थी और रिलायंस की मनचाही सरकार बन चुकी थी लिहाजा अपर हैंड अब रिलायंस का ही था।

23 मई, 2014 को एक बयान में रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कहा कि “हम केजी बेसिन से कथित तौर पर गैस की ‘चोरी’ के दावे का खण्डन करते हैं। सम्भवत: यह इस वजह से हुआ कि ओएनजीसी के ही कुछ तत्वों ने नये चेयरमैन और प्रबन्ध निदेशक सर्राफ को गुमराह किया जिससे वे इन ब्लॉकों का विकास न कर पाने की अपनी विफलता को छुपा सकें।”

लेकिन यह बात महत्त्वपूर्ण है कि 15 मई 2014 को ओएनजीसी ने जो केस दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल किया था। वह एक ऐतिहासिक केस था क्योंकि ओएनजीसी ने रिलायंस पर तो चोरी का आरोप लगाया ही था, उसने सरकार को भी आड़े हाथों लिया था। ओएनजीसी का कहना था कि डीजीएच और पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा निगरानी नहीं किये जाने के कारण ही रिलायंस ने यह चोरी की।

ओएनजीसी (तीसरा पक्ष) कह रहा था कि रिलायंस (पहला पक्ष) और सरकार (दूसरा पक्ष) ने मिलकर इस डकैती को अंजाम दिया है।

लेकिन ओएनजीसी  को 9 दिन के अन्दर ही अपनी औकात मोदी सरकार ने याद दिला दी। सरकार ने 23 मई को रिलायंस, ओएनजीसी और पेट्रोलियम मंत्रालय के अधिकारियों की एक बैठक करवायी और सबने मिलकर इस मामले के अध्ययन के लिए एक समिति बनाने का निर्णय लिया जिसमें रिलायंस और सरकारी प्रतिनिधि शामिल थे।

समिति ने मामले की जाँच का ठेका दुनिया की जानी–मानी सलाहकार कम्पनी डिगॉलियर एण्ड मैकनॉटन (डीएण्डएम) को दिया।

डीएण्डएम ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ओएनजीसी के ब्लॉक से आरआईएल के ब्लॉक में 11,000 करोड़ रुपये की गैस गयी है। दूसरे, उसने यह सलाह भी दे डाली कि इन ब्लॉकों में बची गैस को रिलायंस से ही निकलवा लिया जाये जो इस काम को करने में माहिर है।

इस रिपोर्ट पर निर्णय देने के लिए मोदी सरकार ने न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एपी शाह समिति का गठन किया। समिति का काम इस मामले में हुई भूल–चूक देखना और ओएनजीसी के मुआवजे के बारे में सिफरिश करना था।

शाह समिति ने इस मामले में स्पष्ट रूप से कहा कि मुकेश अम्बानी की अगुवाई वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज को ओएनजीसी के क्षेत्र से अपने ब्लाक में बहकर या खिसक कर आयी गैस के दोहन के लिए उसे सरकार को 1.55 अरब डॉलर भुगतान करना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक रिलायंस अनुचित तरीके से फायदे की स्थिति में रही है।

रिलायंस द्वारा इस फैसले को मानने से इनकार करते हुए अन्तरराष्ट्रीय पंचाट में जाने के निर्णय को मोदी सरकार ने स्वीकार कर लिया जिसमें आये फैसले ने देश की जनता को सदा के लिए महँगे दामांे पर गैस खरीदने पर अब मजबूर कर दिया है।

इस फैसले के तीन–चार दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश में कथित रूप से हजारों करोड़ रुपये की विकास व निवेश परियोजनाओं की नींव रखते हुए कहा था कि “अगर नेक नीयत हो तो उद्योगपतियों के साथ खड़े होने में दाग नहीं लगता।” उन्होंने यह भी कहा था कि पूँजीपतियों ने देश की तरक्की में हिस्सेदारी की है। क्या हम उन्हें चोर–उचक्का कहें?

रिलायन्स के बेदाग बचने से किस पर दाग लगा, यह सोचने वाली बात है।

 
 

 

 

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