अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

राहुल सांकृत्यायन का विकासमान व्यक्तित्व

देश–दुनिया के वर्तमान दौर में राहुल सांकृत्यायन, लेनिन के बहुत करीब लगते हैं। दोनों का व्यक्तित्व विकासमान है। दोनों अपनी रचनाओं से अपने–अपने देश को बदलने का बीड़ा उठाते हैं। “लेनिन” पुस्तक में राहुल जी ने लिखा है–– “इतिहास में ऐसा अन्य व्यक्ति नहीं देखा गया जो इतनी सैद्धान्तिक सूझ, राजनीतिक प्रतिभा, दूरदर्शिता और इतना अदम्य साहस रखता हो। न ही कोई ऐसा राजनीतिक नेता हुआ, जो जनता के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखता हो और जिसमें जनता विश्वास रखती हो। लेनिन सच्चे अर्थों में “असाधारण जनता” के नेता थे।” (पृष्ठ 180)
जिन्होंने पाँच खण्डों में राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा–– मेरी जीवन यात्रा और जीवनियाँ–– नये भारत के नये नेता (खण्ड 1, 1942, खण्ड 2, 1942), बचपन की स्मृतियाँ (1953), अतीत से वर्तमान (प्रथम खण्ड, 1953), स्टालिन (1954), लेनिन (1954), कार्ल मार्क्स (1954), माओ–त्से तुंग (1954), सरदार पृथ्वी सिंह (1955), घुमक्कड़ स्वामी (1955), मेरे असहयोग के साथी (1956), जिनका मैं कृतज्ञ (1956), वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली (1956), महामानव बुद्ध (1956), सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन (1960), कप्तान लाल (1961), सिंहल के वीर पुरुष (1961) पढ़ी है, उन्हें इतिहास में राहुल जैसा अन्य व्यक्ति भारत में नहीं मिला होगा।
उनकी सैद्धान्तिक सोच के लिए उन्हें यात्रा वृतान्त को देखना जरूरी है। मेरी लद्दाख यात्रा (1962), श्रीलंका (1926–27), तिब्बत में सवा साल (1931), मेरी यूरोप यात्रा (1932), यात्रा के पन्ने (1934–36), जापान (1935), ईरान खण्ड 2 (1935), मेरी तिब्बत यात्रा (1937), रूस में 25 मास (1944–47), किन्नर देश में (1948), घुमक्कड़ शास्त्र (1949), सोवियत भूमि, सोवियत मध्य एशिया, दार्जिलिंग परिचय (1950), कुमायूँ (1951), गढ़वाल (1952), नेपाल (1953), जौनसार देहरादून (1955), आजमगढ़ की पुराकथा, एशिया के दुर्गम भूखण्डों में (1955) चीन में क्या देखा (1960), इनमें से ज्यादातर पुस्तकें आज खोजने पर शायद ही मिले।
राहुल जी की राजनीतिक प्रतिभा का विकास समझने के लिए इतिहास दर्शन, विज्ञान और साहित्य में गहरी पैठ जरूरी है। आत्मकथा डॉ हरिवंश राय बच्चन ने भी लिखी है, पर वह मध्यवर्ग की एक सतही कहानी है। मध्यवर्ग के पिछड़ेपन और उपेक्षा की वह कथा है। बच्चन कहीं कुण्ठित, कहीं त्रासदी और अन्तत: उच्च वर्ग में समाहित होने की एक कवि की कहानी कहते हैं। यहीं याद रखें मुक्तिबोध के आत्म–संघर्ष की धीरज गाथा जो मध्य वर्ग से छलांग लगाता है। मैंने “मुक्तिबोध की आत्मकथा” में उनके चिन्तन और क्रान्तिकारी दौर की कहानी लिखी है।
राहुल जी की जीवन यात्रा का विस्तार आप खुद देखें। आप जैसे उनके साथ जापान में घूम रहे हैं। वह आपको बताते हैं कि “1868 ईस्वी में जब जापान अपना द्वार खोलने के लिए मजबूर हुआ और उसने पश्चिमी शिक्षा और साहस को स्वीकार करना शुरू किया, तो बौद्ध धर्म के लिए भारी खतरा हो गया। शिक्षित लोग धड़ाधड़ ईसाई बनते जा रहे थे। बौध कुछ समय तक किंकर्तव्यविमूढ़ दिखलाई पड़े, लेकिन उन्होंने भी अपने तरुणों को संस्कृत सीखने के लिए पश्चिमी देशों में भेजा और सामाजिक सेवा को धर्म प्रचार का साधन बनाया। (पृष्ठ 396)
राहुल जी की जीवन यात्रा आपको इतिहास में बैठना सिखाती है। आप उनके साथ यात्रा करते हुए पिछड़े और उपेक्षित जापान को सांस्कृतिक विकास के लिए अपना द्वार खोल कर “बाहर” की दुनिया से संवाद करते हुए देखते हैं। भारत और तिब्बत पड़ोसी हैं। राहुल जी का यात्री आपके मन में बदलते हुए भारत और चेहरे हुए तिब्बत को एक साथ देखने को तैयार कराता है। आपके मन में राहुल जी यह का सवाल पैदा करते हैं–– “तिब्बत आज तक पिछड़ा हुआ देश था, लेकिन अब वह बहुत दिनों तक पिछड़ा नहीं रह सकता। शिंग क्यांग की भाँति वह भी चीन का अंग है। पुराने चीन की जगह पर नवी चीन हमारी आँखों के सामने उठ रहा है, जो तिब्बत को पिछड़ा और उपेक्षित नहीं रख सकता। तो भी तिब्बत के प्रति हमारे भी कुछ सांस्कृतिक कर्तव्य हैं।” (पृष्ठ 423)
आजादी के पूर्व राहुल जी ने पुराने चीन और नये चीन की आँखों देखी यह कहानी भी हमें सुनायी थी। आँखों देखा रूस उनके लिए इतिहास भी था और कल्पना दोनों था। वे भारत में तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालय की विश्व दृष्टि से आपका परिचय कराते हुए “22वी सदी” (1923) को भारत वर्ष के सामने कल्पना से फेंटेसी के विस्तृत परिदृश्य में परोस देते हैं। यह सांस्कृतिक यात्रा का विकासमान भारत आपको और कहाँ नजर आया है, यह आप पिछले 8 दशक के इतिहास के यात्रा वृतान्त से गुजर कर जान सकते हैं। “22वीं सदी” जहाँ और अदूरदर्शी किसान राहुल की कल्पना को हमारे सामने सीरियल की तरह दिखाता है, वही विकासमान मार्क्सवादी राहुल अपने समय के शिक्षा केन्द्रों में आजादी के बाद ठहरे हुए “दिमागी गुलामी” की विडम्बना का भी चित्र पेश करता है। साहस से अर्जित तिब्बत की उनकी सामग्री पर इंग्लैण्ड और अमरीका उन्हें मोटी रकम दे रहा था। पर राहुल के मन में था–– नये भारत के विद्वानों का भविष्य। वे लिखते हैं, “तिब्बत ने अपने यहाँ सुरक्षित बहुमूल्य संस्कृत ग्रंथों को हमारे लिए सुलभ कर दिया, 50–60 अनमोल ग्रंथों के फोटो पटना में पड़े हैं, लेकिन हमारे देश को उनकी परवाह नहीं। आजाद भारत की सरकार के पास अनमोल ग्रंथों के प्रकाशन और सम्पादन के लिए रुपये नहीं है। रुपया–– पूँजी एक सूत्र है जिसकी व्याख्या में निहित है मार्क्स का पूरा जीवन दर्शन––—मार्क्सवाद। राहुल जी उसी भारत के विकास में मार्क्सवाद की एक कड़ी हैं।
राहुल के विकासमान व्यक्तित्व का मूल्य इस बात में है कि वह जीवन यात्रा में खुद सामन्तवाद की कई मंजिलों तक छलांग लगाते हैं। नये और पुराने विश्व की सैर पाठक को कराते हैं। वह अपने साथ “समय से पहले” प्रतिभा के विलोप होने या “पलायन” करने का संकट भी विकासशील देश के सामने रखते चलते हैं। एक ओर दलाई लामा और अमरीका है, जो तिब्बत को पिछड़ेपन में बन्द रखने के लिए राजनीतिक खेल तिब्बत की जनता के भविष्य से खेल रहे हैं, दूसरे राहुल जी जो तिब्बत की खोज करते हुए पुराने तिब्बत को नये चीन और नये भारत के साथ आधुनिक विश्व में विकसित होते देखना चाहते हैं। पहले वह आपके सामने तिब्बत की सामन्ती व्यवस्था, मठों की दुनिया का नक्शा पेश करते हैं, फिर वहाँ के 2 विश्वविद्यालयों के विद्वानों से संवाद करते हैं–– कैसे स–रो विश्वविद्यालय विकास के बाद न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय बनेगा।
वे लिखते हैं–– “स्मरण रखना चाहिए कि भोटिया लोग दलाई लामा की जगह पर ग्यर्ल–व–रिन–पो–छे (जिन रत्न) शब्द का प्रयोग करते हैं। दलाई लामा यह मंगोल लोगों का क्या नाम है। मंगोल भाषा में त–ल सागर को कहते हैं। पहिले को छोड़कर बाकी सभी दलाई लामा के नामों के अन्त में गर्य–म्छो (सागर) शब्द का योग होता है, इसलिए मंगोल लोगों ने त–ले–लामा कहना शुरू किया, जिसका बिगड़ा रूप दलाई लामा है। टशी (बक–शिस) लामा को भोट भाषा में षण–छेन–रिन–पो–छे (महापण्डित) कहते हैं। (पृष्ठ 42)
तिब्बत यात्रा के समय “महापण्डित” की उपाधि दी थी काशी की पण्डित सभा ने दामोदर दास बाबा को। यह रामोदर दास बाबा परसा का मठाधीश बनने वाला था, पर उसे तो “ठहरने” की आदत नहीं थी। मठ की अपार सम्पत्ति को उसने एक अच्छे नक्शानविस की तरह देखा परखा, पर वह मठ से भाग निकला। फिर लंका और तिब्बत की बीहड़ यात्रा में वह महापण्डित राहुल सांकृत्यायन बना। 1939 ईसवी का किसान सत्याग्रह याद कीजिए। नागार्जुन पटना से राहुल जी के साथ छपरा आये थे। जमींदार से किसानों का झगड़ा हारी–बेगारी से शुरू हुआ था। कैसे राहुल जी के सिर पर लाठी से हमला हुआ इसे सारा देश जानता है? अम्बारी राहुल का पर्याय बन गया था। यदि “भारत के किसान विद्रोह” (1850–1900) पुस्तक एल नटराजन की आपको याद हो तो मोपला विद्रोह से अम्बारी, सुल्तानपुर, छपरा के किसान सत्याग्रह की विकासमान यात्रा में एक किसान क्रान्तिकारी को पहचानने में आप भूल नहीं करेंगे। यह समय बिहार के कांग्रेस सरकार बनने का था। कांग्रेस के साथ थे बड़े जमींदार और मिल मालिक। राहुल जी ने किसान से तब बातचीत की थी। आप भी सुनें––
राहुल–– तुम्हारे गाँव में कितने खेत और कितने घर असामी हैं? 
किसान–– 500 बीघा (300 एकड़ से कुछ ऊपर) और 500 परिवार हैं।–– हिन्दू मुसलमान दोनों।
राहुल–– तुम्हारे मालिक कौन है? 
किसान–– हमारे मालिक डॉक्टर साहब है। 
राहुल–– तब तो तुम्हारा अहोभाग्य है। कांग्रेस के इतने बड़े नेता तुम्हारे मालिक हैं। 
किसान–– अहोभाग्य। सारे रैयत परेशान–परेशान हैं। एक किस्त मालगुजारी जो बाकी रह जाये, तो मार कर खाल उधेड़ लेते हैं। हरी–बेगारी, जुर्माना के मारे नाक में दम है। मालिक के 75 बीघे की काश्त (अपनी खेती) है और उसका सारा जोतना–बोना हम लोगों को अपने हल–बैल से करना पड़ता है।
यह लेनिन की तरह राहुल जी की अपने इलाके के किसान से साक्षात्कार का एक अंश है। राहुल के मार्क्सवाद की यहाँ एक संक्षिप्त टिप्पणी थी–– “यह थे कांग्रेसी सरकार के एक मंत्री और शायद दूसरे मंत्रियों से काफी अच्छे।” (मेरी जीवन यात्रा खण्ड–2, पृष्ठ 501) आज आप कांग्रेस के साथ जनता पार्टी या जमींदार (मालिक का) एक से एक नाम जोड़कर किसान की कहानी का विकासमान या अवसरवादी दो खेमा जनता के सामने रख सकते हैं। राहुल जी सिर्फ भण्डाफोड़ या क्रान्ति के लफ्फाज या कानूनी मार्क्सवादी नहीं थे। वे शुरू से हर क्षेत्र में तजुर्बे पर जोर देने वाले (लेनिन से) जनता के पक्षधर साथी थे। वह तजुर्बे को वैज्ञानिक “प्रयोगशाला” मानते थे। गणित और विज्ञान में उनके तजुर्बे को यदि किसान आन्दोलन के उनके तजुर्बे से मिलाकर हिन्दुस्तान के सोशलिस्ट इतिहासकारों ने देखा होता तो “विशाल हिन्दी क्षेत्र अयोध्या के “मस्जिद गिराऊ” झगड़े में सिमट नहीं जाता। राहुल जी यहाँ रहे पूरे रहे हैं। आज जो नेता, इतिहासकार हैं, वे बिचैलिया से हैं। राहुल जी के दो प्रसंग आप पढ़ लें–– किसान क्रान्ति का भ्रम या सम्पूर्ण क्रान्ति का तमाशा समझ में आ जायेगा।
एक प्रसंग है छपरा में हथुवा के महाराज बहादुर का। याद रखें छपरा के राहुल जी इतिहास लेखक भी हैं और वहाँ के एक–एक गाँव के हजारों किसान उनके संगी उसी क्षेत्र के थे। राहुल जी ने लिखा–– “छपरा में बड़ी जमींदारी हथुवा के महाराज बहादुर की है। सारा कुआड़ी परगना उनका है।” मीरगंज छिनौला के जमींदार अशर्फी साहू हैं। साहू कहते हैं–– “मैंने किसी असामी को खेत नहीं दिया है, मैं अपना खेत जोतता हूँ।” राहुल जी का उस पर नोट है। “लेकिन वे बोल रहे थे सरासर झूठ। 489 बीघा खेत के लिए वहाँ उनके पास हल–बैल कहाँ था? जब साहू ने एक निलहे साहब से यह जमीन और कोठी खरीदी, उस वक्त कितने ही आसामी खेतों को जोता करते थे। उनसे साहू ने खेत निकाल लिया। (वही पृष्ठ 502) यह नोट प्रेमचन्द से रेणु तक की कहानी का भारतवर्ष है। आप अशर्फी साहू के वंश–धरों के नये नाम पते खोज सकते हैं, पर आपको दूसरा राहुल नहीं मिलेगा जो किसानों का पक्षधर लेखक और उनकी राजनीतिक लड़ाई का लेनिन जैसा दोस्त नेता। मेरी यह बात अतिरिक्त उन्हें लगेगी, जो छिपी या खुली किसान राजनीति के सिर्फ तमाशबीन किसान क्रान्तिकारी हैं। राहुल जी ने मध्य वर्ग की ढुलमुल नीति और किसानों से अलगाव की “सत्याग्रह” में खुली समीक्षा की थी। उनके कार्य पर किसानों ने गाँव–गाँव में विशाल सभाएँ की थी और उन पर अपनी भाषा भोजपुरी में “पवारे” लिखे थे। राहुल के अलावा कोई दूसरा किसान नेता जीवित लीजेण्ड नहीं बना। क्योंकि वह किसानों के आदमी थे। जेल में वह भूख हड़ताल इस मुद्दे पर करते हैं कि किसान भारतीय राजनीति की धुरी है और उन्हें राजनीतिक कैदी का दर्जा दिया जाये।
दूसरा प्रसंग है बढ़ैयाताल का। वे लिखते हैं, “बढ़ैयाताल चालीस गाँव का एक वृतान्त मैदान है। यहाँ की जमीन नीची है, 5000 से अधिक लोग जमा थे।––– उस दिन औरतें अपनी मगही भाषा में गाना गा रही थी–– चलु–चलु माता। जेहल के जा बैयरे।” औरतें भी जेल जाने से नहीं डरती थी। राहुल जी रेपुरा में घूम रहे थे। मेहराम चक गाँव था। वे देख रहे थे कि किसान भूखे थे तो भी अब उनके अन्दर से डर निकल गया था। उनके उत्साह को देखकर मेरी तबीयत बहुत खुश हुई। मैंने कहा–– “क्रान्ति तुम्हारा स्वागत है।” यह क्रान्तिकारी उत्साह और निर्भय नेता का स्वप्न किसान क्रान्ति की थीसिस नहीं है। ठोस रोजमर्रा का बदलते हुए हिन्दुस्तान की कहानी है। प्रेमचन्द, भगत सिंह और किसान नेता यदुनन्दन शर्मा को जानते जरूर होंगे, पर उन पर लिखने से वह उस समय डरते थे। यह मैं आज कह सकता हूँ। राहुल जी सिर्फ आंचलिक कहानी लिखकर साहित्य का एक दरवाजा खोलने वाले नहीं थे, किसानों के बीच से लेनिन पैदा कैसे हो सकते हैं, यह देखने वाले मार्क्सवादी चिन्तक थे।
लिखा है–– “मैं समझता था, कि किसान अपने भीतर से नेता पैदा कर सकते हैं, लेकिन कैसे? इसका जवाब मैं अभी नहीं दे सकता था।” यह “मेरी जीवन यात्रा” के दूसरे खण्ड में पृष्ठ 507 पर राहुल जी ने लिखा है। वह खुद को किसानों के बीच टटोलकर देखते–परखते थे। यह लेनिन का आजमाया हुआ अनुभव था। लेनिन और राहुल का सूत्र वाक्य था–– “मृत्यु से भय खाना मेरे लिए मरने से बदतर है।” (पृष्ठ 512) वह केसे खतरे के बीच मैदान में आये उनका रेखाचित्र भी आप उनके स्मरण में देख लें। लिखा है–– “10 बजे हम 11 आदमी हसुआ लेकर खेत में पहुँच गये। शराब पिलाकर मतवाला किये दोनों हाथी पास खड़े थे। उनके पास सैकड़ों लठधरों की पाँत खड़ी थी। लठधरों में से कुछ को तो जमींदार ने भाड़े पर बुलाया था, कुछ आदमी आसपास के दूसरे जमींदारों ने दिये थे और कुछ को समझाया गया था कि कुर्मी एक राजपूत भाई की इज्जत बिगाड़ रहे हैं, जाति गुहार में शामिल होना चाहिए।––– मैंने दो उँख काटी, थानेदार ने मुझे गिरफ्तार कर लिया।––– बाकी को भी गिरफ्तार कर लिया। मैंने सिर पीछे की ओर किया, देखा जमींदार का हाथीवान कुर्बान हाथी से उतरा। मैंने दूसरी ओर मुँह घुमाया, उसी वक्त खोपड़ी के बायीं ओर जोर से लाठी लगी। मुझे कोई दर्द मालूम नहीं हुआ, हाँ, देखा कि सिर से खून बह रहा है।(पृष्ठ 513)
“भागो नहीं (दुनिया को) बदलो” पुस्तक में “कमेरों का राज्य” कौन लाएगा यह राहुल सांकृत्यायन ने साफ ढंग से लिखा है––
“भैया–– दुखू भाई हमारा देश बहुत बड़ा है। 35 करोड आदमी रहते हैं। कम्युनिस्ट इतने अधिक नहीं हैं कि हर जगह पहुँच सके, मुदा ई बात ठीक है कि हम उन पर ही विश्वास कर सकते हैं, पर वह जोकों के फन्दे में नहीं पड़ सकते।”
मंगरू–– भैया ऊ तो तपे हुए सोना है। हमने कोइलरी में देखा है, कैसे पुलिस उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी रहती है, हाथ में आते ही जेल में बन्द करके साँसत करती है। साँसत ही काहे जेल में उनके ऊपर गाली भी चलायी और कितनों को मारा।”(पृष्ठ 202)
असहयोग आन्दोलन की विशालता और सक्रियता की कुल 113 पृष्ठों की संसमरनात्मक गाथा है–– “मेरे असहयोग के साथी” इसमें राहुल जी के राजनीतिक क्षेत्र के सहयोगी किसान, साधु, घुमक्कड़, वकील जैसे साथी हैं। 1921 से 1926 तक थाने और इलाकों में जनता में कार्य करने का यह सजीव कोश है। कुछ संस्मरण संक्षिप्त है, कुछ लम्बे। पूरा राष्ट्रीय आन्दोलन गाँव में संगठित कैसे हुआ, बाढ़ पीड़ितों के बीच कार्य की राहुल की पद्धति क्या थी, कांग्रेस आन्दोलन शिथिल पड़ने पर विकल्प में सेवा भावना का क्या जातीय रूप राहुल जी ने तैयार किया था, इन सवालों का अध्ययन करने की यह अनूठी पुस्तक है। वह इलाके में काम करते समय तरुणों के स्वभाव को निकट से देखते थे, उस इलाके की आर्थिक पृष्ठभूमि वहाँ के लोगों के सामने रखते थे, राहुल जी की राजनीतिक कार्य क्षेत्र छपरा जिला था। देखें उनके अध्ययन की पद्धति––
“छपरा जिला भारत के बहुत घने बसे हुए जिलों में हैं। वहाँ की एक–एक अंगुल जमीन जुड़ चुकी है, इसलिए जितने भी नये मुँह आये, उनके लिए नये खेत मिलने की सम्भावना नहीं। इसलिए वहाँ के लाखों आदमी कोलकाता, मुम्बई और दूसरी जगह नौकरी के लिए चले जाते हैं। कितने तो वर्मा, सिंगापुर ही नहीं फीजी आदि टापू में भी जाकर हमेशा के लिए बस गये हैं। इससे मालूम होगा कि वहाँ का अर्थ संकट कितना कठिन है और साधारण किसान का आर्थिक जीवन तो और भी ज्यादा अनिश्चित होता है।” (पृष्ठ 10) यह जनता को गुलामी के अनिश्चित आजादी के निश्चित लक्ष्य तक पहुँचाने की एक पद्धति है। राहुल का विकासमान राजनीतिक यहाँ जनवादी तैयारी की शुरुआत करता है।
“जिसका मैं कृतज्ञ” पुस्तक संस्मरण का प्रसंग “मेरे असहयोग के साथी” पुस्तक से व्यापक है। यह व्यापकता और राहुल की जीवन यात्रा से अर्जित व्यापकता है। एक मिडिल पास आदमी इसी जीवन यात्रा में प्रोफेसर बनता। बहुत सी भाषायें सीखता है। उनके अनुवाद करता है। कृतज्ञता का बोध, एक बड़े इनसान की कहानी हमें सुनाता है, कैसे वे घर परिवार के व्यक्तियों, रामदीन मामा, महादेवी पण्डित, योगेश के बाद काशी और आगरा काल में–– मौलवी गुलाम गोस, ब्रह्मचारी चक्रपाणि, ब्रह्मचारी मगनीराम, मौलवी महेश प्रसाद, के आगे बढ़कर यात्रा के अकारण बन्धुओं से मिला—परम हंस बाबा, मुखराम पण्डित, वरदराज, स्वामी हरि प्रसन्नचारी महंत लक्ष्मणदास, पण्डित भगवाचार्य, वेंकटाचार्य, फक्कड़ बाबा, पण्डित सरयूदास, पण्डित गोविन्द दास, कुछ ने घुमक्कड़ी काल में उनसे सीखा, जिनमें धूप नाथ सिंह, भदंत आनन्द कौसल्यायन, कुछ साहित्यसेवियों की मधुर स्मृति है जिनमें सत्यनारायण कविरत्न, पण्डित सन्तराम। कुछ से राहुल जी ने नेपाल, ईरान, फ्रांस और रूस यात्रा में अटूट मित्रता कायम की, उनमें इतिहास और दर्शन के महान विद्वान हैं–– जैसे महामहोपाध्याय विधु शेखर भट्टाचार्य, डॉक्टर काशी प्रसाद जायसवाल, आचार्य नरेंद्र देव, विज्ञानमार्तंड पण्डित रामअवतार शर्मा, नेपाल के पण्डित आचार्य इंदिरारमण शास्त्री, राजू पण्डित हेमराज शर्मा, तिब्बत के व्यापारी बन्धु धर्मा साहू, गोशे धर्म वर्दन, डो–नीर–छेन–पो, सक्या द्गचेन, ईरान प्रवास से बंधू बने मिर्जा महमूद, जापान में 2 मित्र बने, फ्रांस में प्राच्यविद्य आचार्य सेलवेन लेवी और रूस में आचार्य श्चेर्वात्स्की। इन स्मरणों को उनकी जीवन यात्रा के साथ मिलाकर पढ़ने पर राहुल जी की विकासमान भिन्न अभिरुचियों और ज्ञान की खोज का अन्तरंग विश्वकोश हमारे सामने दौड़ जाता है, सिने–रील–सा।
राहुल जी अपने विकासमान व्यक्तित्व से अतिरंजना से काम नहीं लेते। वे “रूस में 25 मास” पुस्तक में आज के रूस के विघटन की पृष्ठभूमि बताते हैं। अतीत तिब्बत का हो या भारत का हो, उसे बदलते हुए विश्व के साथ जोड़ते हैं। वोल्गा से गंगा की कहानियाँ हो या मध्य एशिया का इतिहास वास्तव में उनके विकास का सूत्र था–– नवीन मानवता का पक्ष। रूस और चीन हर बार उनकी तिब्बत और यूरोप की यात्रा के केन्द्र में रहा। वह यह मानते थे “नवीन सोवियत राष्ट्र सारी मानवता की आशा है।” क्या रूस के बिखरने से राहुल का विकासमान व्यक्तित्व खंडित होता है? “2 शब्द” में लिखा है राहुल जी ने–– “जो पार्टियाँ जननायक अपने को नवीन मानवता का पक्षपाती मानते हैं, संसार को सुख और शान्ति के मार्ग पर ले जाने वाला कहते हैं, वह जनता को राहुल और लेनिन की तरह सही दिशा देते रहे हैं। जबकि जनता को धोखा देने वाले सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट खेमे में भी हैं। राहुल को पढ़ने का अर्थ है जनता के स्रोत से जुड़ना और उसे सही दिशा में साहस से आगे ले जाना। इस कार्य में उनका ज्ञान अटकलपच्चू अनुसंधान से वैज्ञानिक इतिहास की खोज में फर्क करना हमें सिखाता है।
दर्शन दिग्दर्शन हो या मानव समाज हो या सिंह सेनापति हो, वह ज्ञान के वैज्ञानिक विकास पर जोर देते थे। सिंह सेनापति की भूमिका में वे लिखते हैं–– “जीने के लिए” के बाद यह मेरा दूसरा उपन्यास है। वह बीसवीं सदी ईसवी का है और यह ईसा पूर्व 500 का। मैं मानव समाज की उषा से लेकर आज तक के विकास को 20 कहानियों (वोल्गा से गंगा) में लिखना चाहता था। उन कहानियों में एक इस समय (बुद्धकाल) की भी थी। लिखने का समय आया तो मालूम हुआ कि सारी बातों को कहानी में नहीं लाया जा सकता, इसलिए “सिंह सेनापति” के समकालीन समाज को चित्रित करने में मैंने ऐतिहासिक कर्तव्य और औचित्य का पूरा ध्यान रखा है।
ऐतिहासिक कर्तव्य और औचित्य बदलता है और उसे बदलने के लिए सत्य के पक्षधर आगे आते हैं। “अकबर” पुस्तक में वे लिखते हैं–– “कबीर, नानक जैसे समन्वयकर्ता असफल हो चुके थे। वे दोनों जातियों के मानसिक सम्बन्ध को भी पूरी तौर से स्थापित नहीं कर सके थे। भौतिक सम्बन्ध की तो बात ही क्या। शायद इसलिए अकबर को दीने–इलाही की नींव डाली पड़ी।
जनता को धोखा देने वाले आज फिर से सिर उठा रहे हैं। स्वामी करपात्री ने हिन्दू राष्ट्र के बहाने मुसलमानों को देश निकाला देने की दलील दी थी। राहुल जी ने उनकी दलीलों का वैज्ञानिक उत्तर दिया था–– “रामराज्य और मार्क्सवाद” पुस्तक में वह दृढ़ता से कहते हैं “मुझे गाली भले ही दे लें, लेकिन यह ख्याल रखें कि आज के कितने ही हिन्दू लेखकों की भांति मैं यहाँ सत्य के साथ गद्दारी करने के लिए तैयार नहीं हूँ।––– मैं आज की संकीर्ण हिन्दू मनोवृति की परवाह नहीं करता हूँ, मैं परवाह करता हूँ सत्य की ‘कालोहयलयं निवधिर्विपुला च पृथ्वी।”(पृष्ठ 8)
राहुल ने हर क्षेत्र में यही सत्य की जीवन यात्रा हमें सिखायी है। जब जो काम उनके सामने रहा, वह निर्भय उसके लिए आगे रहे, किसान आन्दोलन से, इतिहास लेखन तक वह सत्य की ही कहानी जीते रहे, वह एक साथ समय की धारा से रचनाकार हैं दूसरे इतिहास के राजनीतिक योद्धा हैं। सिंह सेनापति में संस्कृति की, समय की कहानी भी है और युद्ध के विचार भी हैं। हमें उनकी रचनाओं से विकासमान मूल्यों की पहचान अभी करनी है।
(यह लेख इतिहासबोध अंक–13 (1993) में प्रकाशित हुआ था। वहीं से साभार सहित लेकर उसका सम्पादित रूप यहाँ प्रस्तुत है।)
 

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