जून 2020, अंक 35 में प्रकाशित

रफीक भाई को समझाइये

चला जाता हूँ हँसता–खेलता मौजे हवादिस से

अगर आसानियाँ हो, जिन्दगी दुश्वार हो जाये

भेल्लोर से लौटे हैं रफीक भाई। गये थे मामूजान की ओपन हार्ट सर्जरी करवाने अपनी जाँ से रोग लगा आए। ओपन हार्ट के सक्सेस से चैन मिला था। एक हफ्ता रुकना था सो मजाक–मजाक में थौरो चेकअप करवाने चले गये। ऐसी रिपोर्ट का अंदेशा न था, देखा तो सकते मे आ गये। चेन स्मोकिंग ने पैरों की नसों को जाम कर दिया था। खून में हीमोग्लोबिन की जगह निकोटिन। डॉक्टर ने सख्त हिदायत दी है–– सिगरेट से तौबा कर लीजिए नहीं तो चन्द महीनों में पैर काटने की नौबत आ जायेगी,’ तबरेज भाई तफसील से बीमारी के बारीक नुक्तों से हमंे परिचित करवाने पर उतारू थे।

रफीक भाई पर तो कोई खास असर नहीं दिख रहा था। वही उदास आँखे आसमाँ पर टंगी हुई। चेहरे पर वही परेशानी जो पहले थी वो आज भी। उँगलियों में जलती सिगरेट। हाँ! पहले चारमीनार हुआ करती थी आज विल्स फिल्टर थी। चलिए डॉक्टर की हिदायतों की कुछ तो आबरू रख ली।

लेकिन यह निकोटिन का असर कब हुआ? हम तो उनकी चाल के अटपटेपन को कॉलेज–यूनिवर्सिटी के दिनों से देख रहें हैं। उन दिनों तो इतनी सिगरेट भी नहीं पीया करते थे। जानने वाले बताते हैं कि यह तो वर्षों से है। शायद बचपन से। शायद ‘उन दिनोंे’ के बाद से ही।

चलते वक्त पैर उठते तो ठीक से ही किन्तु रखते वक्त थोड़ी देर लगती मानो कुछ सोच–सोच कर पैर धर रहे हों। जैसे कि पैरांे को धरती पहचनाने में देर लग रही हो।

साथ चलने वालों को बड़ी खीज होती। रुक–रुक कर चलना पड़ता लेकिन चन्द दिनों में ही हम आदी हो गये थे। जिनसे अपनापा हो, मुहब्बत हो वह आपकी वजूद का ही हिस्सा हो जाता है। फिर कुछ भी ध्यान में नहीं आता कि उसकी खाल का रंग आबनूसी है कि सफेद, उसकी नाक नुकीली है कि पकौड़ी जैसी, वह मोटा है या पतला, लम्बा है या नाटा, चाल अच्छी है या अटपटी, ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं। वह बस अपना होता है, अपने जैसा।

लेकिन लड़कों की फब्तियाँ या हँसी हमें परेशान करती। न चाहते हुए भी रफीक भाई का मूड उखड़ जाता सो हम लोगों ने बड़ी मशक्कत से एक सेकेण्ड हैण्ड साइकिल का इन्तजाम किया और उतनी ही मशक्कत के बाद रफीक भाई ने उसे अपनाया। आहिस्ता–आहिस्ता वह साइकिल उनकी पर्सनाल्टी का हिस्सा बन गयी, उनके पैरों का विस्तार।

खैर जाने दीजिए उन बातों को। जब तक रफीक भाई की सिगरेट खत्म होती, हमसे मुखातिब होते तब तक चचाजान शुरू हो गये। गली के तीनमुहाने पर न जाने कब से मूड बना रहे थे।

रफीक भाई का यह छप्परपोश घर भी तो ठीक तीन मुहाने पर ही था। दो तरफ से नालियाँ बहती हुर्इं। विधायक फंड से गली की पीसीसी ढलाई हो गयी थी। चलिए बरसात में कीचड़ से तो निजात मिली। गली के बाशिन्दों में दर्जियों, मिस्त्रियों, ठेलेवालांे की बहुतायत थी चन्द घर ही टीचरों–क्लर्कों जैसों के थे। जिस नाली के पास घर के चबूतरे पर रफीक भाई की महफिल जमती उस नाली पर यहाँ वहाँ सुबह–शाम–दोपहर बच्चे इत्मीनान से हगते रहते।

ये चचाजान भी कुदरत के अजीम–तरीन नमूने हैं। पाँचों वक्त के नमाजी। जोहर और असर की नमाज के बाद इस तिमुहानी की दीवार लगकर तकरीर करते। वैसे तो हम सब के सब एक आध आने खिसके होते हैं। चचाजान थोड़ा ज्यादा लगते थे। कई बार राँची हो आये थे इससे बडा़ प्रूफ खिसकने का क्या होगा?

सो चचाजान की तकरीर पूरे शबाब पर थी।

कोई माबूद नहीं सिवा अल्लाह के मोहम्मद अल्लाह के रसूल हैं। सल्लल्लाहो अलैहैं वसल्लम।

अल्लाह, उसके सिवा कोई इबादत के लायक नहीं। उसे न ऊँघ आती है न नींद। उसी के वास्ते है जो कुछ आसमानों और जमीन में है। जो कुछ हो रहा और जो कुछ हो चुका उसे सब मालूम है सारी कायनात को उसी ने पैदा किया है।

दुनिया के सारे इनसान व सारे जिन्नात अल्लाह के बन्दे हैं। हजरत मुहम्मद साहब ने फरमाया है कि अल्लाह अपने हर बन्दे को एक माँ से सत्तर गुणा ज्यादा प्यार करता है, चाहे वह किसी भी मजहब का क्यों न हो–––।

हम इन्तजार में बैठे थे कि तकरीर खत्म हो तब तक किसी ने टोहका मारा ‘चच्चा आज बुश हरामी पर कुछ नहीं फरमाइयेगा’

‘लो अब हो गया फरमाईशी दौर। लम्बा खिंचेगा। यहाँ से खिसका जाए’, तबरेज भाई की सलाह सही थी। वहाँ से उठ कर पीपल तले की चाय गुमटी के बेंचो पर हम जम गये।

बहुत खरोंचने, ढेरांे धौल धप्पे के बाद रफीक भाई का सिगरेट सुलगाने–धुआँने का सिलसिला रुका। निगाहें आसमाँ से नीचे उतरीं। आर–पार होने के बदले हमारी सूरतों पर टिक गयी। अल्फाजों से हमें नवाजना शुरू किया।

यह खासियत थी रफीक भाई की। अव्वल तो बोलते नहीं। घर से सोच कर निकलते कि आज दिन भर में कितने अल्फाज खर्चने हैं। बोलते तो इतनी तल्खी से कि सामने वाला छटपटा जाये। पुरानी पहचान न हो तो झगड़े की नौबत आ जाये। लेकिन हम उनके इन्हीं अदाओं के कायल थे। उनके इन तल्ख अन्दाज और फिलासफर अदाओं ने कॉलेज– यूनिवर्सिटी के दिनों मे कितने–कितने मोर्चों पर फतह दिलवाई थी। हम दिनेश भाई, यूसुफ भाई सभी प्रोग्रेसिव स्टुडेंट फेडरेशन की जान हुआ करते थे। कितने मूवमेंट को लीड किया, धरने दिये, जेल गये। लेकिन कैरियर को ओझल नहीं होने दिया। अलग–अलग सब्जेक्ट के कारण आपसी कोई प्रतियोगिता भी नहीं थी, जो हमारे बीच दरार बनती। हाँ! घरों की जर्जर माली हालत वह फेविकोल था जिसने हमें बाँधे रखा।

पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद ज्यादा बैठना नहीं पड़ा। वैसे भी नेट करने के बाद कोचिंग क्लासों से अच्छी खासी आमदनी हो जाती। तरह–तरह की परीक्षाओं के फॉर्म भरने, उनमें बैठने के लिए आने–जाने, चाय–सिगरेट के लिए पिताओं के सामने हाथ पसारने की जलालत से हम बच गये थे। फिर कमीशन द्वारा यह लेक्चरशिप। तबरेज भाई उसके बाद ही हमारे गु्रप में शामिल हुए थे। बिहार से आए थे। ठेठ बिहारी, खूब दरियादिल, हाजिरजवाब, हँसने–हँसाने वाले मसखरेपन से भरे हुए। लेकिन बिहारीपन का ‘वह’ खास झाँस भी व्यक्तित्व का हिस्सा था, अशराफ होने का थोड़ा सा गुमान। मौका मिलते रफीक और यूसुफ भाई को चुटकी काटने से बाज नहीं आते। उनके पास जुलाहों की बेवकूफियों पर चुटकुलों का जखीरा था। हमें उनकी बस यही बात नापसन्द थी। किन्तु दिल के इतने प्यारे कि उस निगेटिव को हम माइनस करके चलते।

बात रफीक भाई के अल्फाजों से शुरू हुई थी। जब उन्हांेने नवाजना शुरू किया तो वे बदन में तत्तैया से डंक मारने लगे। बात सच भी थी। उनको छोड़ कर गु्रप के और लोगों ने बाप–दादाआ,ें मामा–मौसाओं की दुम पकड़ कर पाँच–सात सालों के अन्दर ही राजधानी के कॉलेजों में ट्रांसफर करवा लिया था। अब शिक्षक संघ पर कब्जा भी था। किन्तु रफीक भाई कमडेगा में ही अटके हुए थे। रोज सबेरे–सबेरे, जाड़ा–गर्मी–बरसात सात बजे की बस पकड़नी होती थी। लौटते–लौटते अँधेरा हो जाता। कब फिजियोथेरेपिस्ट के यहाँ जाते? कब इलाज शुरू होता?’

जब मरना ही है तो सिगरेट क्यों छोड़ी जाये। यह छोटी सी अय्याशी ही तो है जिन्दगी में, वरना और रखा क्या है? देखिए नरेन्द्र भाई! वो मुझसे मुखातिब थे, ‘पहले ट्रांसफर करवाईये तब सिम्पैथी जताने आईये आपलोग। झूठ–मूठ की ‘शोक–संवेदनाओं’ का मेरे करीब कोई मतलब नहीं।’

इक गदाए–राह को नाहक न छेड़

जा फकीरों से मजाक अच्छा नहीं

दिल में इक फाँस सी अटक गयी। हर कोशिश नाकामयाब हो रही थी। कुलपति की मुस्कुराहट, बेटे–बेटे की रटन और शीरीं जुबान, उससे भी शीरीं उनकी चाय के सामने हमारे सारे हथियार कुन्द पड़ जाते। उधर रोज तबरेज भाई खबर देते कि रफीक की चेन स्मोकिंग बन्द नहीं हो रही है। हर पाँच–सात दिन पर एक कोशिश करते किन्तु बुड्ढा पिघल नहीं रहा था। रायरंगपुर से निराला बाबा को बुलाया गया आखिर हमारे सीनियर थे, संघ के अध्यक्ष, खूब आक्रामक, बहस में एक से एक नायाब तर्क पेश करने वाले, किन्तु उनकी भी दाल नहीं गली।

तब बाबा का ही आइडिया था कि एक बुलेटिन प्रकाशित किया जाये। कुछ न कुछ मसाला तो मिलेगा ही मिलेगा। उसी में वीसी को घुमा–घुमा कर पकाया जाये। देखते हैं बुड्ढा कब तक नहीं पिघलता है।

सो बिना देर के ‘यूनिवर्सिटी वॉयस’ का प्रकाशन शुरू हो गया। हर अंक में यूनिवर्सिटी ऑफिस के करप्शन के किस्सों की सनसनाहट होती। बुड्ढा पिघलने लगा था। हमें भी मजा आने लगा। रफीक भी अपने छुट्टी के दिनों का अच्छा खासा समय इस बुलेटिन की प्रूफ रीडिंग में लगाते। चेन स्मोकिंग की स्पीड थोड़ी घट रही थी।

तभी यह संजोग हुआ। हम लोगांे ने नामवर सिंह का एक कार्यक्रम तय करवाया। मालूम नहीं था कि वीसी साहब नामवर जी के इतने बड़े फैन निकलेंगे। स्थानीय अखबार में एक पेज नामवर जी पर केन्द्रित किया गया था। उसके लेख भी वीसी साहब को इतने अच्छे लगेंगे कि गदगदायमान हो जायेंगे, इसकी तो एकदम उम्मीद नहीं थी। खास कर मेरे और दिनेश भाई के लेख। हो सकता है वीसी साहब की डिप्लोमेसी के ये सब हिस्सा रहे हों। नतीजा यह कि परोक्षत: ‘यूनिवर्सिटी वायस’ के दबाव में, प्रत्यक्षत: उस कार्यक्रम और हमारे लेखांे से खुश होकर बुड्ढे ने रफीक भाई को कमडेगा से राजधानी बुलवा तो लिया किन्तु डेपुटेशन पर।

खैर जो हो, न जाने कितने बरसों के बाद रफीक भाई के परीशाँसूरत पर मुस्कुराहट के जुगनू दिखे। पूरा वजूद गुनगुना रहा था कि वो खुश हैं। भाई ने पॉकिट से विल्स फिल्टर की डिब्बी निकाली और नचा कर नाले में फेंक दिया।

उस दिन रफीक भाई को कमडेगा कॉलेज से विरमित होना था। लड़कांे ने विदाई का अच्छा खासा कार्यक्रम बनाया था। रफीक भाई खूब अच्छे मूड में थे। सबको चलने का न्यौता दिया। लेकिन सबकी अपनी–अपनी व्यस्तताएँ थी। पर मुझे कमडेगा घूमने–देखने की इच्छा थी। (उससे ज्यादा इच्छा रास्ते में रफीक भाई के पुराने मकान और ‘उन दिनों’ के हादसांे को जानने की थी जिसके बारे मे कोई खुल कर बात ही नहीं करना चाहता था। ) यह इच्छा भेल्लोर की रिपोर्ट ने जगाई थी। उसके पहले उनकी चाल की लटपटाहट को मानो हमने स्वीकार ही कर लिया था। लेकिन अब लग रहा था कि कोई बात तो जरूर थी। केवल निकोटिन नहीं। यूसुफ भाई ने ‘उन दिनों ’ की ओर बार–बार इशारा तो किया था। अगर ‘उन दिनों’ के बाद से ही यह लटपटाहट थी तो यह केवल निकोटिन का असर कैसे हो सकता था? कुछ तो और भी जरूर ही रहा होगा। जिन्हें पैथोलॉजी समझ नहीं पा रही थी। बस हर छोटे–बड़े स्टॉप पर रुकती खरामा–खरामा चल रही थी। पहुँचने में ढाई–तीन घंटे लगने थे। हम इधर–उधर की बातों में टाइम पास कर रहे थे। मुझे रफीक भाई के अतीत को कुरदने में थोड़ी झिझक हो रही थी। कैसे बात शुरू करूँ समझ में नहीं आ रहा था। तभी उन्होंने एक सिगरेट निकाली। ‘अरे!’ मैं चैंका, ‘भाई आपने तो न पीने की कसमें खाई थी, डिब्बी भी नाली में फेंकी थी। फिर क्यों?’

‘देखिए भाई! छोड़ दूँगा। कसम खाई है तो छोडूँगा ही। किन्तु इतने सालों से आदत सी हो गयी है। एक एडिक्शन ही समझ लीजिए। धीरे–धीरे जायेगी। दिन भर में पाँच का कोटा रखा है। अफसोस इस बात का है कि जिस इरादे से सिगरेट पीनी शुरू की थी वो पूरा नहीं हो सका।’

‘अब सिगरेट पीने के पीछे क्या मंशा हो सकती है?’

‘छोड़िए, इन बातों में रखा क्या है कुछ और बातें कीजिए। भाभी जान की पीएचडी पूरी हुई कि नहीं?’ रफीक भाई टालने की कोशिश कर रहे थे।

‘देखिए रफीक भाई! हर इनसान को अपनी प्राईवेसी का हक है। इसीलिए पिछले दस– एक वर्षों से दोस्ती के बावजूद हमलोगों ने कभी आपको नहीं टोका लेकिन हम सब लोगों को लगता है कि आपका अतीत आपकी पर्सनाल्टी पर हावी हो रहा है। आपको शेयर करना चाहिए। मवाद बहने के बाद ही घाव सूखता है।’

न जाने कब रफीक भाई की बाँयी हथेली मेरी हथेलियों के बीच आ गयी थी। जब उसमें थरथराहट शुरू हुई तो अहसास हुआ। नजरें उठाई तो देखा रफीक भाई के होंठ तेजी से फड़फड़ा रहे थे, आँखंे डबडबा आयी थीं।

‘कहाँ से शुरू करूँ भाईजान! और क्यूँ शुरू करूँ? आखिर हमारी कहानी जानकर भी कोई क्या करेगा? हमारे अब्बू को आपने देखा है? नाली के किनारे बैठा बीड़ी फूँकता, खाँसता, करियाया हड़ियल बूढ़ा। अल्यूमिनियम के पुराने बरतन सा। पिचका टूटा–फूटा, बेकार सा जिसका कोई वजूद न हो। और हमारे नीम पागल चाचू, तकरीर देता एक मसखरा। क्या ये ऐसे ही थे? काश! हमारी आँखांे से इन्हंे कोई देख पाता। अपने बचपन की यादों को मैं दिखा पाता। क्या शख्सियत थी हमारे अब्बू की। काश! मैं आपको मेन रोड की बजाजा गली वाला अपनी दो मंजिले मकान की खूबसूरती दिखा पाता। उसके पीछे की बगीची में गुलाबों और बेली की क्यारियों और रातरानी की झाड़ियों के पास जाड़े की धूप और गरमी की सोंधी शाम को अब्बू की आरामकुर्सियों पर आपको बिठा पाता जहाँ बैठकर अब्बू अपनी तरह–तरह के फ्लेवर वाली चाय पीया करते थे, और अम्मी नयी मैगजीन या बुक का कोई पन्ना या पैराग्राफ सुनाती रहती या पोइट्री के किसी लाइन पर बहस किया करती। अब्बू शहर के सफल बजाजा व्यापारियों में से एक थे। अम्मी भी पढ़ी लिखी, जहीन, लिटरेचर की जानकार। कहते हैं उनकी जैसी तालीमयाफ्ता इक्की–दुक्की शहर में थी। ये नीम पागल चच्चू उस वक्त हाई स्कूल के अव्वल स्टूडेंट हुआ करते थे और हॉकी के स्टेट लेवल के खिलाड़ी।’

रफीक भाई हाँफने लगे थे। थोड़ा रुके। बुझते सिगरेट से कश खींचा! खिडकी से बाहर आसमाँ की ओर ताकने लगे। जज्ब किये आँसुओं को रूमाल से पोछा। थोड़ी देर की खामोशी के बाद फिर बात शुरू की।–––मवाद अब बह रहा था।

‘तब मैं सात–आठ साल का रहा हूँगा। थोड़ी सी यादंे, थोड़ा लोगांे से सुनते–जानते बड़ा हुआ हँू। तब शहर का जुगराफिया ही कुछ और हुआ करता था। अकल्लीयत के लोग खुशफहमी में थे। सन सैंतालिस में भी इस शहर में दंगें नहीं हुए थे। हर कहीं, हर मुहल्ले में अकल्लीयत खानदान के लोग बसे थे। हर पेशे, हर धन्धे में आगे बढ़ रहे थे। उन्हें क्या मालूम था कि वे सेक्यूलर इंडिया के सेकुलरिज्म पर थोड़ा ज्यादा ही भरोसा कर रहे थे। भाई जान! सन सड़सठ की छोड़ दीजिए, आज के दिन भी लाई–डिटेक्टर के सामने पूछ कर देखिए सौ मंे नब्बे लोग हमें गैर समझने वाले मिलेंगे। ‘खाने वाले यहाँ के और गाने वाले वहाँ के’ जैसे सोच से भरे। वे हमें बराबरी का हक–हकूक देने को तैयार नहीं। वे चाहते हैं हम दोयम हैं, दोयम बने रहें। जिए जरूर किन्तु एक कुत्ते की जिन्दगी।’

‘न जाने कौन सा सवाल था। शायद उर्दू का राजभाषा बनने, न बनने देने का। मंशा सूबे में पहली बार बनी गैर–कांग्रेसी सरकार को बदनाम करने की थी। काले झण्डे से शहर पट गया। चन्द लोगों के दिमाग का ढक्कन फटा और खौलता हुआ सल्फ्यूरिक ऐसिड सड़कों पर बहने लगा हमारी वजूदों को खाक करता।’

‘ये हमारे अब के मामूजान, तब हमारी दुकान मंे हेल्पर हुआ करते थे। इस आजाद गली के पुराने बाशिन्द,े उन्होंने मंजर भाँपते हुए एक दलित परिवार के खाली किये हुए इस छप्परपोश घर में ताला मार रखा था। जिस रात को हमारी दुकान में आग लगी, उसी रात को हमने अपना मकान ‘अंसारी मंजिल’ खाली कर दिया। अंदेशा तो था ही। सारे स्टाफ, नौकर–चाकर भी रात को घर में ही रुके थे। दंगाइयांे को एक टक्कर देने की तैयारी के बावजूद अब्बू ने निकल चलने का ही फैसला लिया था। चन्द फर्लांग पर जलते दुकान की लपटों ने अफरा–तफरी मचा दी। बदहवासी में सब भाग–दौड़ कर रहे थे। अम्मी भी मुझे भूल गयीं। एक हाथ में गहने की संदूकची थामे गोदवाली छोटी बहन को सीने से लगाए सीढ़ियांे से उतर गयीं। अजीब धक्का सा लगा।––– एकदम ही भूल गयीं?––– छोड़ दिया?––– आवाज तक नहीं दीं? मैं कोठरी से खड़ा अवाक ताकता रह गया। छोटी बहन अब्बू के पास। वो पहले से ही उसे कंधे पर बिठाये नीचे ठेले पर सामान रखवा रहे थे। किसी को मेरी फिक्र नहीं थी।––– सबने छोड़ दिया? सब भूल गये? क्या मैं इतना फालतू था? मैं वहीं फर्श पर बैठा सुबकने लगा। लगा मैं नहीं रहता, मर ही जाता तो अच्छा होता। ये बेरुखी तो नहीं देखने को मिलती। तभी किसी स्टाफ ने सामान के साथ–साथ मुझे भी दो मंजिले से नीचे उछाल दिया। वो चच्चू ही थे जिन्होंने मुझे थामा। मेरी हिचकी गले में घुँटकर रह गयी। मेरे होशोहवास उछाले जाने के बाद वहीं आसमान में टंगे रह गये।’

‘थोड़ी देर में होश आया तो अम्मी पर बहुत गुस्सा आ रहा था। लग रहा था जोर–जोर से झकझोर कर पुछँू क्यों मुझे छोड़ दिया?––– क्यों?––– भूली कैसे? मुझसे ज्यादा वह संदुकची कैसे प्यारी हो गयी? लेकिन यह ख्वाहिश आज तक पूरी नहीं हो सकी। उस रात शायद दो या तीन बजे के बीच का समय होगा। महात्मा गाँधी राजपथ से होकर जैसे ही इंदिरा गांधी स्ट्रीट घुसे, न जाने भेड़ियों का झुण्ड वहाँ कब से इन्तजार कर रहा था। काली आँधी का एक गुबार सा उठा और हमें तिनकों सा बिखरा कर चला गया। भेड़ियों के गुजरने के बाद हमारी बीस–पच्चीस की संख्या आधी से कम रह गयी। अम्मी और गोदवाली बहन भी गायब थी। संदूकची और ठेले के असबाब गायब थे। नुचे–लुटे भिखमंगे से हम आजाद गली के छप्परपोश मकान में दाखिल हुए।’

‘भाई जान! हमारी और इस शहर की बात छोड़ दीजिए। नजर उठाकर देखिए पूरे हिन्दुस्तान में ऐसा कोई शहर नहीं मिलेगा जिसमें आजाद बस्तियाँ नहीं हांे। ऐसा कोई गाँव नहीं मिलेगा जहाँ अलग टोले नहीं हांे। और इन आजाद बस्तियों की बनावट एकदम सूअर की खोहड़ की तरह। गन्दगी और आदमियों की ठेलमठेल। मल से भरी हुई उफनती हुई नालियाँ, कूडे़–करकट, मक्खियों–मच्छरों के बीच कुत्ते की जिन्दगी। अब पैदा करते रहिए साइंटिस्ट, आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर, डॉक्टर। पैदा करके देखिए इन खोहड़ों में पढ़ने–पढ़ाने का माहौल। कभी हो नहीं सकता। मंशा साफ है दोयम हैं, दोयम रहिए। ये बाबरी मस्जिद, रथ–यात्राएँ, गोधरा सब बहाने हैं हमंे चूहा बनाने और बिल तक खदेड़ने के बहाने। अब तो बुश–ब्लेयर की फजल से पूरी दुनिया में ही ऐसा माहौल बन रहा है।’

‘अम्मी के छोटे अब्बू, अन्सारी साहब, उस वक्त के स्टेट पॉलिटिक्स की बड़ी हस्ती हुआ करते थे। उनका बहुत प्रेशर पड़ा एडमिनिस्ट्रेशन पर। लेकिन वो नहीं मिलीं। न अम्मी मिलीं, न गोदवाली बहन। न उनकी लाशें। हाँ, सौ धक्के खाकर अब्बू को मकान–दुकान का कुछ मुआवजा मिला जिससे की यह फेरी का काम शुरू हो सका। बिना खाये–पिये अपनी अम्मी सरीखी भाभी जान को दिन–रात खोजते फिरते चचा कुछ ही महीनों में सीआईपी राँची पहँुच गये।’

‘जैसे–जैसे मैं बड़ा होता गया अब्बू की हालत ज्यादा महसूस करता। मेरी सूरत अम्मी पर गयी थी सो अव्वल तो मेरी ओर वे ताकते नहीं थे। ताकते तो चेहरे के पार देखने लगते। गलती से नजर मुझ पर टिकती तो इरीटेट होने लगते या मुँह फेर लेते। दो तरफा नालियों से घिरे इस घर ने अब्बू को कम तबाह नहीं किया। सबेरे चबूतरे पर चाय पीने बैठते तो नालियों से उठता भभका, हगते बच्चे। अब्बू का चेहरा लाल होने लगता, देह थरथराने लगती। शायद दुर्गन्ध को बर्दाश्त करने के लिए ही बीड़ी की लत डाल ली। भला हो नयी अम्मी का जिन्होंने मेरी छोटी बहन और गृहस्थी को सम्भाल लिया।’

‘दिनभर कपड़ों के बोझ के साथ फेरी और ऊपर से बीड़ी। अब्बू का चेहरा करियाने लगा। सेहत गिरने लगी। दो चार वर्षों में ही अब्बू ऐसे बदल गये कि पुराने ननिहाल से लोग हमारा हाल लेने गाहे–बगाहे आते तो उन्हें पहचान ही नहीं पाते।’

‘मैं तब इण्टर में था जब पहली बार खाँसते, नाली मंे बलगम उगलते अब्बू को बीड़ी पीने से रोकने की कोशिश की थी और थप्पड़ खाया था। वह थप्पड़ भी मेरी जिन्दगी का पहला और आखिरी थप्पड़ था जिसके बाद हम और अब्बू दोनों रोये थे।’

‘अब्बू की बीड़ी छुड़वाने के तरीके इजाद करने के चक्कर में मैंने सिगरेट पीनी शुरू की। शायद मुझे पीता देख वे नाराज हों और खुद भी बीड़ी पीना छोड़ दें। लेकिन उन्होंने मान लिया था कि मैं बड़ा हो गया हूँ। और कुछ नहीं कहा। तब से यह सिगरेट मेरी जान से लग गयी।

न जाने कब कमडेगा आया। विदाई–कार्यक्रम शुरू हुआ, कब खत्म हुआ, कुछ पता ही नहीं चला। दिमाग सुन्न हो गया था। रफीक भाई से नजर मिलाने से भी बच रहा था। लग रहा था इन सारे हादसों की जिम्मेवारी हमारे कंधों पर भी है। पाँव बोझिल हो रहे थे। कदम उठाना मुश्किल हो रहा था। अब रफीक भाई के पैरों का हवा में ठिठकने के मायने थोड़े–थोड़े समझ में आ रहे थे।

!!गुजरे हैं कई मरतबा हम दश्तो चमन से

हमलोग जमाने की हवा खाये हुए हैं!!

कमडेगा से लौटने के बाद महीनों रफीक भाई से भेंट नहीं हुई। कॉलेज अलग–अलग थे सो परीक्षाओं के मौसम ने बहुत बहाने दिये। विषय अलग होने के कारण कॉपी जाँचने के केन्द्र भी अलग–अलग। ऐसा नहीं था कि उनके खयालात नहीं आते थे। किन्तु खयाल अपने साथ नामालूम सी शर्मिन्दगी के अहसास भी साथ लाते। और शायद यह अहसासे–शर्मिन्दगी ही थी जो आजाद गली की ओर बढ़ते कदमों को रोक लेती।

परीक्षाओं और कॉपी–जाँच ने ऐसे ठोस बहाने दिये थे जिसके बिना पर ‘यूनिवर्सिटी वॉयस’ की प्रूफ रीडिंग और शिक्षक संघ की बैठकों में भी जाने से बचता रहा था।

तभी तबरेज भाई के फोन ने बन्द पोखर मंे पत्थर का काम किया, ‘अपने खून को समझाइये। न प्रूफ रीडिंग में समय दे रहें हैं न एसोसिएशन की मीटिंग में। हाँ! आजकल प्रो– वीसी को तेल लगाने में थोड़ा ज्यादा ही ध्यान दे रहे हैं। एक दूसरी बात और, जो ज्यादा खतरनाक है। बिरादरी में ब्याह करते नहीं। हिन्दुआनियों के चक्कर में पिटते–पिटते बचे हैं। मर–मरा जायेंगे, तो शहर में दंगा हो जायेगा। कहाँ तो बजाजा गली में, कौन से अग्रवाल सदन की लक्ष्मी सदन के आसपास मंडराने का नया–नया चस्का लगा है।’

एक धक्का सा लगा। जिस शख्स की सैंतीस बहारंे हुश्नो–इश्क से अनजान बीत चुकी हांे उस पर आवारागर्दी, शोहदागिरी का आरोप। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। हालाँकि बजाजा गली से कुछ पुराने मकान का चक्कर रहा होगा इतना समझ रहा था। लेकिन कॉलेज–यूनिवर्सिटी के दिनों में भी लड़कियों से थोड़ी दूर ही रहते थे रफीक भाई। गर जबरन कोई लड़की ग्रुप में शामिल हो अनौपचारिक होने लगती तो उसे बहन बना लेते। तब हम मजाक भी किया करते कि घर में बहनों की कमी है क्या? खुदा की फजल से पाँच–पाँच बहनंे हैं। फिर बाहर क्यूँ नजरे झुकाए–झुकाए बहनों की लाइन लगा रहे हैं?

तब हमें कहाँ मालूम था कि वो मान कर चल रहे थे कि उनकी अम्मी और गोदवाली बहन हैं। यहीं कहीं हैं। सचमुच उन लड़कियों में कोई उनकी बहन ही हो और अम्मी से पूछे जाने वाली उनके सवालों की सूची तो रोज घटती–बढ़ती रहती। और यह भी कि साड़ी पहननी पढ़ी–लिखी हर सुन्दर सी महिला उन्हें अम्मी ही लगती।

खैर, प्रूफ रीडिंग और बैठकों में गैरहाजिरी के लिए शिकायत तो समझ में आ रही थी। किन्तु प्रो– वीसी वाली बात हजम नहीं हो रही थी। इस मरगिल्ले, हैंहियाने वाले, दाँत निपोर प्रो– वीसी के चेहरे से भी भारी चिढ़ थी हमारे ग्रुप को। फिर अचानक क्या हो गया?

और तबरेज भाई के सम्बोधन से तो साफ था कि वो उस दिन की बतकही को भूले नहीं थे। चाय की दुकान पर तबरेज भाई सदा की तरह मसखरी के मूड मंे थे। लेकिन चुटकुले वही पुराने, जुलाहों की बेवकूफियांे पर। रफीक और यूसुफ भाई नहीं थे तो ज्यादा बुरा लग रहा था। टाँड़ खेत में खिले काँस को चाँदनी रात में नदी समझ कर एक जुलाहे के नहाने वाले चुटकले को पिछले दिनों से कई बार सुनने के बाद आखिर मेरी बर्दाश्त खत्म हो गयी। झाड़ने के सिलसिले में ही यह बात कह दी थी कि मै भी तो बैकवर्ड हूँ एक पसमांदा। आप जैसे अशराफ, पंडितों की नजर मंे छोटी जात। इस बिना पर हम और रफीक भाई एक ही खून हुए। अब से अल्ल बल्ल बकने के पहले जरा सोच लिया कीजियेगा। तबरेज भाई ने यह खून वाली बात पकड़ ली थी।

शाम को वही पुराना अड्डा। पीपल तले की चाय गुमटी की बेंच। एक छोटी सी पीतल की डिब्बी से भूनी हुई आजवाइन निकाल–निकाल कर फाँके जा रहे थे रफीक भाई। सिगरेट की तलब मिटाने का देशी तरीका अजमाया जा रहा था। फीजियोथेरेपी का भी असर चेहरे पर दिख रहा था। किन्तु निगाहों में वही परेशानी थी और आँखों मे फिक्रमन्दी। चाय आयी तो सिगरेट भी सुलगाने लगे। पूछने के पहले बता दिया पाँच से तीन पर आ गये हैं।

हम गुमसुम बैठे थे। चाय की चुस्की मे डूबे हुए, गुजरने वाले लोगों से, साइकिलों–स्कूटरों से बहुत दूर खोये हुए से। आसपास खेलते बच्चे भी हमारा ध्यान नहीं खींच पा रहे थे। मैं बीच–बीच में रफीक भाई की ओर ताक भी लेता था। किन्तु वे चाय और सिगरेट के साथ व्यस्त और उनकी निगाहें सातों आसमान की थाह लेने में। मुझे कैफी की वो लाइने याद आने लगीं, आज तुम कुछ न कहो, आज मैं कुछ न कहुँ, बस यूँ ही बैठे रहो, हाथ में हाथ लिये, गम की सौगात लिये, गर्मी–ए–जज्बात लिये और न जाने क्या–क्या। मन ही मन याद करने की कोशिश कर रहा था। शायद आखिरी पंक्ति थी दूर पर्वत पर कहीं, बर्फ पिघलने ही लगी। तब तक भाईजान की निगाहें थाह लगा कर वापस धरती पर लौट आयी थीं। अब होंठ हिले और शब्द सुनाई दिये, जहे किस्मत!

भाईजान ने बिना मेरे कुछ कहे मंजर भाँप लिया था। हमेशा की तरह तल्ख थे। आज धाँह थोड़ी ज्यादा थी ‘मैं इन लोगांे से आजिज आ गया हँू। ये दोनों लोग तबरेज भाई और दिनेश भाई हर जगह ढिंढोरा पीटते चल रहे हैं, कि हमने ट्रांसफर करवा दिया। अव्वल तो यह डेपुटेशन है मुकम्मल ट्रांसफर भी नहीं। और साली इसी डेपुटेशन के लिए कम से कम सौ लोगांे के सामने सिजदा किया होगा। उनके दरवाजों पर सर रगड़े होंगे। किसका–किसका नाम लूँ। और किसने मदद नहीं की? सबने अपने औकात भर मदद की ही। आपने भी अपने जानते मदद की। यूसुफ भाई ने भी अपने हिसाब से फोन–वोन करवाया ही। नहीं तो यह काइयाँ बुड्ढा यूँ ही अपने पुट्ठे पर हाथ थोड़े धरने देता।’

‘दूसरी बुरी आदत है तबरेज भाई की कि दूसरों को चढ़ा देंगे और मौका माकूल नहीं लगा तो अपने पीछे हट जायेंगे। पिछले दिनों शिक्षा मंत्री के प्रोग्राम को लेकर जो सूवेनियर पब्लिश हुआ था उसकी जिम्मेवारी वीसी ने हमीं लोगों को सौंपी थी। फाइनल करने को उनके चैम्बर में बैठे थे। गर्ल्स कॉमर्स कॉलेज की प्रिंसिपल वर्मा मैडम के आर्टिकल पर हम तीनों लोगांे को एतराज था। पोस्टकार्ड साइज का रंगीन फोटो और पासपोर्ट साइज की आर्टिकल। फोटो भी उसी तरह की जैसे रहती हैं पचपन की उम्र में भी खुले बाल लहराते हुए, लिपिस्टिक, गहरा मेकअप। कहीं से भी प्रिंसिपल की शान के लायक नहीं लग रहे थे, न फोटो, न आर्टिकल। बात तय हुई थी कि पहले मैं एतराज दर्ज कराऊँगा उसके बाद ये दोनों लोग भी अपने–अपने ढंग से सर्पोट करेंगे। लेकिन मैंने तो अपने अन्दाज से बात रख दी और ये लोग बुड्ढे का चेहरा पढ़कर भाँप गये कि बात चुभ गयी है सो चुप लगा गये। मैं बुरा बन गया। फोटो–आर्टिकल तो छपा ही, अन्दरूनी जानकारी मिली कि बूढ़ा डेपुटेशन खत्म करने की फिराक में है।

यह तो मेरी खुशकिस्मती थी कि साइन्स कांग्रेस के लिए प्रो– वीसी को पेपर तैयार करने के लिए मेरी याद आयी। मैंने उनकी मदद की और उन्होंने मेरी। डेपुटेशन खात्मा का खतरा टला। अब शायद मुकम्मल ट्रांसफर ही हो जाये।’

‘वह बजाजा गली वाली क्या बात है भाई, कोई मार–पीट भी हुई थी शायद।’ रफीक भाई ने अजीब डूबती निगाहों से देखा और देखते–देखते उनकी आँखें डबडबाने लगीं। फिर पूरी कोशिश से जज्ब करने में लग गये। आहिस्ता से खामोशी फिर हमारे बीच आकर बैठ गयी। उसके गहरे साये में दबकर लम्हें सुबकने लगे। जब सिगरेट के धुँओं से उतरी उदासी सूइयाँ चुभोने लगी तो हम उठ खड़े हुए। फिर न मैंने कुछ पूछा न भाई से कुछ बताना मुनासिब हुआ। यूँ ही चुप–चुप हम एक दूसरे से जुदा हो गये।

बाद में यूसुफ भाई से जानकारी मिली कि बजाजा गली का अग्रवाल–सदन, कुछ और नहीं अंसारी–मंजिल ही है, रफीक भाई का पुराना मकान। भाई को वहम हो गया था कि अगर किसी तरह अग्रवाल सदन की चैखट को एक बार पार कर लेते और ऊपर उस बालकनी से झाँक लेते जहाँ से उन्हें उछाला गया था तो शायद उनके पैरों की नामालूम सी तकलीफ दूर हो जाती। पैर शायद जमीं को पहचान पाते। हवा में लटके होने का भरम शायद दूर होता।

यूसुफ, रफीक भाई के दूर के रिश्तेदार भी लगते थे। सो वो सारी बातों से परिचित थे। उन्होंने यह भी बताया कि भाई की एक और ख्वाहिश थी कि काश वो अपने अब्बू को सिर्फ एक बार उसी बगीची में उन्हीं गुलाबों–बेली की क्यारियों के बीच बैठा पाते।––– पूरे सुकून के साथ। और खुश्बूदार एक प्याली चाय होती और कुछ नहीं। होती तो बस पोएट्री की कोई किताब होती।

बस इन्हीं छोटी–छोटी ख्वाहिशों को पलकों पे उठाए वे बजाजा गली के गाहे–बगाहे चक्कर काटने लगे। जब देखिए उनके स्कूटर का रूख उसी ओर होता। हर बार सोचते कि अग्रवाल सदन के किसी बुजुर्ग से बात करें। लेकिन पहुँचते ही गड़बड़ा जाते। आखिर कोई क्योंकर मानता कि यह घर पहले इन्हीं का था, खास कर अग्रवाल खानदान के लोग।

रफीक साहब को भी कहाँ मालूम था कि उस मकान में उनकी छात्राएँ रहा करती हैं। बड़ी वाली तो इन्हीं के विषय में आनर्स कर रही है, छोटी वाली भी इण्टर साइंस में है और इनकी केमेस्ट्री क्लासेज की फैन। जिस घर में रफीक भाई के दो–दो मुरीद हांे, घर वालों को पता लगना ही था। ‘सर’ के स्कूटर कीे आवाज सुनकर ही दोनों की खिलखिलाहट, बालकनी से ताक–झाँक और आँखों की चमक इतनी बढ़ जाती कि अंधे भी समझ लेते माजरा क्या है। भले रफीक भाई न समझे हों।

क्लासेज में लड़कियों वाले कोने की तरफ ताकने से इन्होंने तो तौबा की हुई है। वैसे इनकी पलकांे पर तो ख्वाहिशों की तितलियाँ काबिज रहती थीं। उनका रंग उतरे तब तो दूसरांे का रंग चढ़े। किन्तु मिस अग्रवाल्स के माँ–बाप ने अपने बच्चियों के रंग–ढंग भाँपकर अपने हिसाब से हिस्ट्री और साइकोलोजी समझी। उनकी निगाहों में कहाँ ताव थी कि वे रफीक भाई की तितलियों को देख पाते। सो अनदेखे तितलियों की कारस्तानी से गली के शोहदों और अग्रवाल साहबान के स्टाफों के हाथों बुरी तरह जलील होकर एक दिन वापस आ गये। नन्हीं तितलियों ने पलकों पर ही दम तोड़ दिया। शायद आँसुओं के गंगो–जमन में डूबने से साँसंे घँुटी हों। मजबूरी और जलालत ने चाल की लटपटाहट और बढ़ा दी। जो सोचा, हो न सका। कदमों की जमीं की तलाश बाकी रह गयी। वजूद का एक हिस्सा वहीं बालकोनी के बाहर टंगा रह गया।

!! कागज तमाम किल्क तमाम और हम तमाम

पर दास्ताने–शौक अभी नातमाम हैं!!

दिन खूँटे तुड़ाये बैल से भागे जा रहे थे। बच्चों की परीक्षाएँ, मेम साहब की बीमारी। सोचने की भी फुर्सत नहीं। महीने भी इतनी तेजी से बीत गये मानो किसी रेस मे दौड़ रहे हों। तभी ‘यूनिवर्सिटी वॉयस’ की बैठक की खबर ने खलल डाली। ठीक बात है, साल–डेढ़ साल से प्रकाशन रुका पड़ा था। रफीक भाई के डेपुटेशन के बाद एक दो ही इश्यू आ पाया था।

दिनेश भाई के यहाँ मीटिंग थी। रफीक भाई के सिवा सब जुट गये थे। माहौल खुशगवार था। फोन–सेल पर तो बातंे होती रहती थीं। मिलना अच्छे खासे दिनों के बाद हो रहा था। शायद उसका भी असर हो। तभी रफीक भाई का स्कूटर दिखा। रंग–ढंग बदला सा, नया–नया। मालूम हुआ डेंटिंग–पंेटिंग करवायी है। भाईजान भी बदले–बदले दिखे। बाल–वाल ठीक से सँवरे हुए। क्लीनशेव्ड। ब्रांडेड शर्ट। ब्रांडेड पैण्ट। नये जूते–वूते। चेहरे पर लाली और आँखों में भरपूर चमक। चाल की लटपटाहट भी कम लगी। ‘बात क्या है?’

‘आपके रफीक भाई को एक रफीका मिल गयी हैं जिन्हें रफीक–ए–हयात क्या कहते हैं जीवन संगिनी बनाना चाहते हैं’, तबरेज भाई ने खबर दी।

‘क्या भाई जान! यह क्या सुन रहे हैं।––– आपसे तो ऐसी उम्मीद न थी।––– अरे! ये तो शरमा रहें। बात सचमुच सच है।’

खुशनुमा शोर से कमरा बजने लगा।

‘अरे! बचपन की ही दोस्तानी हैं, रफीका साहिबा मिस तबस्सुम जहाँ। रायरंगपुर वाली छोटी बहन की ननद। इण्टर की परीक्षा देकर छुट्टी मनाने गये थे। लूडो–शूडो का खेल हुआ करता था। खूब जुगनू पकड़–पकड़ हथेलियों में भरा करते थे जनाब। इसी बहाने गुदाज हथेलियों की रंगो–खुशबू चुराया करते। अरे! मियाँ को कम मत समझिए। खेले खाए हैं। सैंतीस बहारंे यूँ ही नहीं गुजरी हैं।’

सब जेनरल नॉलेज बढ़ाने पर आमादा थे। उधर रफीक भाई झंेपे जा रहे थे।

सच तो यह है कि वो वाकया रफीक भाई सचमुच भूल गये थे। सहरा की तपतपाती रेत में चार दिन चाँदनी किसे याद रहती है। भला हो पब्लिक सर्विस कमीशन वालों का जिन्होंने तबस्सुम साहिबा का सेन्टर न केवल राजधानी में बल्कि भाईजान के सिटी कॉलेज में ही दे दिया। यानी कि मिलना तय था। शायद अल्लाह का करम अपना काम कर रहा था। परीक्षा– केन्द्र के रूप में राजधानी का चयन तो खुद तब्बसुम ने ही किया था लेकिन सिटी कॉलेज में ही संेटर पड़ेगा यह नहीं सोचा था।

‘छोटी’ निकाह के बाद कब मैके आयी थी यह रफीक भाई को भी याद नहीं। नयी माँ और उनकी बेटियोंे से कभी पटा ही नहीं। एक यह कारण हो सकता है। दूसरा कि रायरंगपुर के संयुक्त परिवार में इतना काम रहता कि साँस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। ऊपर से चार–चार बच्चे। बस अब्बू और उनसे खतो–किताबत चलती रहती। सौतेली बहनों की शादियों मंे भी किसी न किसी बहाने मटियाते रहीं, न ही आयीं।

तबस्सुम अपनी खाला के यहाँ हसन–कॉलोनी में टिकी थी। नयी–नयी बसी थी कॉलोनी। तबरेज भाई जैसे प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, बैंककर्मी लोग और कुछ व्यवसायियों ने कॉपरेटिव बनाकर दो–चार बरस पहले ही इस कॉलोनी को बसाया था। बाउन्ड्री की ऊँची दीवारों पर घरों से कम खर्च नहीं हुए थे।

आज बरसों पहले उन गुदाज हथेलियों में बन्द किये गये जुगनू सैकड़ों–हजारों की संख्या में रफीक भाई के चारों ओर मंडरा रहे थे। पन्द्रह दिनों की परीक्षा के बहाने सुबहो–शाम की भेंट ने बीच के बरस मिटा दिये थे।

जीवन में बदलाव साफ झलक रहा था। साथ ही यह भी कि पहली बार किसी ने उनके पैरों की जमीं से जान–पहचान करवा दी थी। हालाँकि हवा, उनके पैरों और जमीं के बीच की हवा, बरसों से हर पल यह कोशिश करती रही थी किन्तु रही असफल। आज एक लगाव ने, जिन्दगी की ललक ने वह काम कर दिया था ऐसा लगता था। तबस्सुम भी अब इनके लेक्चरशिप, डॉक्टरेट, यूनिवर्सिटी टॉपर आदि–आदि के रूआब से बाहर आकर सचमुच की रफीका खास दोस्त बन गयी थी। लौटने के बाद भी हर तीन–चार घंटे पर मोबाइल पर बतियाये बिना दोनांे को चैन नहीं आता था। एसएमएस के लिए तो कोई टाइम की बन्दिश ही नहीं थी।

जिन्दा रहने के लिए इनसान कितने खूबसूरत बहाने ढूँढ निकालता है। एक ख्वाहिश की लाश पर दूसरी इच्छाओं की पौध। इन पहाड़ियों की पथरीली जमीन पर भी सरगुजा के फूल अफरात में खिल उठते हैं बस उस खास मौसम का इन्तजार भर करना होता है। वही सरगुजा के अनगिन फूल, नन्हीं सूरजमुखियाँ रफीक भाई के वजूद पर खिली नजर आ रही थीं। अब इन फूलों को कोई नजर न लगे। अब कोई ताप नहीं। हल्की सी भी धाँह नहीं। या खुदाया।

न जाने मैं कहाँ खो गया था। तबरेज भाई की तेज आवाज से होश आया, ‘रफीक मियाँ आँख–कान खुली रखते तो तबस्सुम बेगम अब तक इनके आँगन में दो–चार बच्चे खेला रही होती। बुद्धि हो तब न। ‘इन लोगों’ की बुद्धि तो घुटनांे मंे होती है। पढ़ने–लिखने से क्या होता है? हैं तो ‘वही’ न।’

तबरेज फिर अपनी औकात पर आ गये थे। अशराफत अपनी जोम पर थी। कमरे का तापक्रम एकाएक बदल गया था। इसका उन्हें अहसास ही नहीं था। वे अपनी रौ में बहे जा रहे थे, ‘ये सन सड़सठ में अटके हैं। लगता है इनके साथ पूरी दुनिया भी गम में घुली जा रही है। ये सरासर बेवकूफी नहीं है तो क्या है। यह तो वही वाली मिसाल हुई कि एक जुलाहा रात में नाव से सफर को निकला लेकिन पाल खोलना ही भूल गया। सुबह तक पतवार से नाव को खेता रहा, लेकिन नाव जहाँ की तहाँ रह गयी। लोगों ने पूछा तो सफाई दी कि क्या करें मेरा जो गाँव है वह मेरी जुदाई बर्दाश्त नहीं कर सकता। ये भी सन सड़सठ के किनारे ही पतवार खेते जा रहे हैं। और जिन्दगी का पाल ही खोलना भूल गये।’

न जाने कौन बेवकूफी कर रहा था। पूरा कमरा उनकी आवाज से फटा जा रहा था। एकाएक खाये जा रहे खीर की मिठास ही गायब हो गयी थी। तभी रफीक भाई ने अपनी कटोरी जोर से पटकी और कमरे से बाहर निकल गये। चेहरा तमतमा रहा था। चाल में फिर से उतनी ही लटपटाहट। स्कूटर तक पहँुचने में अच्छी खासी देर लगी।

हमें मालूम था कि रफीक भाई कहाँ गये होंगे। तबरेज भाई को छोड़ हम एक–एक कर वहीं पहुँच गये। पीपल तले की चाय गुमटी पर। वही पुराना मंजर था। वही आकाश, वही सिगरेट, वही धुँआ, वही खमोशी।

‘ये अशराफ नमक है। हमारे जी–जान से लगे, ताजिन्दगी आहिस्ता–आहिस्ता गलाने वाले, यूसुफ भाई भुनभुना रहे थे।

मुझे कर्ण के रथ पर काबिज राजा शल्य कीे याद आ रही थी। बोल मारता, तंज कसता, छोटी जाति का अहसास करा कर्ण के मनोबल तोड़ने की कोशिश करता राजा शल्य। ‘देखिए भाई! जो हुआ सो भूल जाइये। आप भी जानते हैं कि हम सब से कितना लगाव है तबरेज का। अब हर इनसान में अच्छाई–बुराई होती तो है। इनसान तो इनसान ही है भगवान तो नहीं है सो बुराइयाँ तो होंगी। मसखरापन तो ठीक है। किन्तु कास्ट को लेकर तंज नहीं कसनी चाहिए यह तो मैं भी मानता हूँ। अब माफ कर दीजिए। भूल जाइये’, ये दिनेश थे, कसे तारों को ढीला करने की कोशिश में।

धीरे–धीरे माहौल हल्का हुआ। वही ‘यूनिवर्सिटी वायस’ के अगले अंक की रचनाओं पर चर्चा हुई। यह भी तय हुआ कि भांजे के जन्मदिन पर रफीक भाई को जरूर रायरंगपुर जाना चाहिए। इस बार बहन से, दुल्हे भाई से खुल कर अपनी भावनाओं का इजहार करके आना चाहिए।

दिन की भागम–भाग फिर शुरू। गर्मी की लम्बी छुट्टी, फिर ससुराल में शादी। शहर से लम्बे समय तक दूर रहना पड़ा। बस मोबाइल का ही एक सहारा था। हाल–समाचार मालूम होते रहते। गु्रप से मिली खबरों से यह अन्दाज लग रहा था कि रफीक भाई का रायरंगपुर दौरा कुछ अच्छा नहीं रहा। आफतनसीब हैं रफीक भाई। इससे ज्यादा कोई बता नहीं रहा था। फिर से चेन स्मोकिंग शुरू कर दी है, पैरांे का मर्ज बढ़ गया है यह भी खबर थी। उनसे बात हो नहीं पा रही थी। मोबाइल स्विच ऑफ रहता। क्या बात हो गयी, समझ में नहीं आ रहा था। मन उचट गया। जल्दी लौटने का बहाना ढूँढने लगा।

शहर लौटते ही सबसे पहले स्कूटर उठा कर आजाद–गली की ओर निकला। एसएमएस करके ग्रुप के और लोगों को खबर कर दी थी। स्कूटर रफीक भाई के घर की ओर मुड़ा तो अजब मंजर दिखा। रफीक भाई रिक्शे से घर के दरवाजे के पास उतरने की तैयारी कर रहे थे। पैर तेजी से काँप रहे थे। हाथों में एक छड़ी सी पकड़ी हुई थी। रिक्शेवाले ने बाँह पकड़ कर उतरने में सहायता की तब तक चबूतरे पर बैठे अब्बू उठे और बेटे को थाम लिया। नाली पार करते दोनांे बाप–बेटे ऐसे थरथराते कदम बढ़ा रहे थे कि लग रहा था अब गिरे तब गिरे। मैंने एक्सीलेटर बढ़ाया। स्टैंड कर तेजी से बाँह थामने को बढ़ा मगर तबतक दोनांे चबूतरे तक पहुँच चुके थे।

अब्बू मुझे देखकर अन्दर चले गये। रफीक भाई की आँखों में पहचान की कोई लहर नहीं उठी। हैलो का भी जवाब नहीं दिया। मिलाने को बढ़ा हाथ हवा में कुछ पल लटका रहा। मायूस हो सिमट गया। चारमीनार फँूकते रफीक भाई ने फिर आसमाँ की तरफ टकटकी लगा दी। मनहूस खामोशी हमारे बीच पसर गयी। अजब अटपटा सा लगने लगा। तब तक गु्रप के और लोग पहुँचने लगे।

यूसुफ भाई–दिनेश भाई ने फुसफुसा कर जो बात बताई उसे सुनकर रफीक भाई की कमनसीबी पर रोना आने लगा।

सब ठीक ही चल रहा था, रायरंगपुर में। बहन और बहनोई का तो पहले से ही मन था। वे बस रफीक भाई की मंशा जानना चाहते थे। इतनी पढ़ी–लिखी लड़की को ऐसे–वैसे घर में तो देने से रहे। बरसों पहले भाई जब वहाँ गये थे तो दोनों का लगाव उन लोगों ने भी महसूस किया था। उन्हें कोई उज्र नहीं था।

लेकिन किसी की बुरी नजर लग गयी।

भाँजों के संग शहर का खूब चक्कर काटते शायद काफी थक गये थे रफीक भाई। बेडरूम में उठंग कर टी वी देखते गहरी नींद में सो गये। अब मसहरी लगाने गयी थी कि टीवी ऑफ करने, ज्यादा रात भी नहीं हुई थी। दस–साढ़े दस बज रहे होंगे। हाँ! ढंग की साड़ी पहनी हुई थी। माथे पर आँचल–वाँचल भी था तभी रफीक भाई आधी नींद में उठे और अम्मी–अम्मी कह कर झकझोरने लगे। कुछ बड़बड़ा भी रहे थे। अजीबो–गरीब हरकत से तबस्सुम काफी घबरा गयी और इन्हें झटक कर भागी। इन्हें तो उस वक्त कुछ पता ही नहीं चला। फिर आराम से गहरी नींद में सो गये। सबेरे सबका मुँह उतरा हुआ था। तबस्सुम कहीं दिख नहीं रही थी। मालूम हुआ एक एनजीओ के लोगों के साथ कोई प्रोजेक्ट पूरा करने निकली हैं। शायद तीन–चार दिनों में वापस आये। मोबाइल स्विच ऑफ बता रहा था।––– वह आज तक बता रहा है। बात बिगड़ चुकी थी। ‘छोटी’ ने दुल्हे मियाँ के जाने के बाद इशारा किया, तब से तबियत बिगड़ती चली गयी। शायद इस बार ख्वाबों का महल ज्यादा पुख्ता और ज्यादा ऊँचा था। भरभरा कर गिरा तो गहरी चोट आयी। शायद एक बार फिर पैरों तले की जमीं गुम हो गयी। दो चार कदम चलना भी मुश्किल हो रहा है।

जिद्दी भी गजब के हैं। न चेकअप करवा रहे हैं न कोई दवा ले रहे। फीजियोथेरेपिस्ट के यहाँ जाने को तैयार नहीं होते। फिर चारमीनार पर आ गये हैं। अब एक ही रास्ता बचा है कि किसी तरह भेल्लोर ले चला जाये।

उस रात की हरकत पर कुछ बोलते ही नहीं। बहुत कुरेदने पर बस इतना बताया कि मेरी अम्मी मरी नहीं हैं। वो हैं। हर साड़ी पहनी तालीमयाफ्ता पाक नफीसा मुझे अम्मी लगती हैं। यह सच है। लेकिन उस रात क्या हुआ यह याद नहीं।

खामोशी और उदासी की मनहूस काली बिल्लियाँ फिर से हमारे चार सूँ डोलने लगीं। हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सिर झुकाए सोचे जा रहा था आखिर कब तक कोई इस तरह जी सकेगा।

तभी यूसुफ भाई की मोबाइल की उदास धुन ने सन्नाटे को तोड़ने की हिम्मत की। अनजान नम्बर था। झिझकते हुए हैलो किया। उधर से जो हल्की सी आवाज आई उसने तो बस जादूगरी दिखाई। रफीक भाई की निगाहें जागीं। अब चश्मेनम में पहचान की परछाइयाँ काँपने लगी थीं। बिला शक उस ओर तबस्सुम थी। रफीक भाई की अश्कबार आँखंे यह बता रही थीं कि सीने में जमा बरफ–सा गम अब पिघलने लगा था।

(‘कथादेश’ जून, 2007 में प्रकाशित)

 
 

 

 

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