अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

प्रेमचन्द के फटे जूते 

प्रेमचन्द का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सर पर किसी मोटे कपडे़ की टोपी, कुर्ता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आयी हैं, पर घनी मूँछे चेहरे को भरा–भरा बतलाती हैं।

पाँवों में कैनवस के जूते हैं, जिनके बन्द बेतरतीब बन्धे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बन्द के सिरों पर लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बन्द डालने में परेशानी होती है। तब बन्द कैसे भी कस लिये जाते हैं।

दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमें से अँगुली बाहर निकल आयी है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गयी है। सोचता हूँ– फोटो खिंचाने की अगर ये पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग–अलग पोशाकें नहीं होंगी।–इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।

मैं चेहरे की तरफ देखता हूँ। क्या तुम्हंे मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जरा भी एहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी–प्लीज’ कहा होगा, तब परम्परा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे–धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है ये अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं है, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!

यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है।

फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम ‘अच्छा चल भई’ कहकर बैठ गये होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते–देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।

तुम फोटो का महत्त्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो माँगे के कोट से वर–दिखाई करते हैं और माँगे की मोटर से बरात निकालते हैं, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्त्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाये। गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है।

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस जमाने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे! जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो अच्छे जूते की कीमत और बढ़ गयी है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के अनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडम्बना मुझे इतनी तीव्रता से कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग–प्रवर्तक, जाने क्या–क्या कहलाते थे, मगर फोटो में तुम्हारा जूता फटा हुआ है।

मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है। अँगूठा जमीन से घिसता है और पैनी गिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है।

पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पँजा छिल जायेगा, मगर अँगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अँगुली ढकी है पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं।

तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो जिन्दगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।

तुम्हारी यह व्यंग्य–मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है ये?

– क्या होरी का गोदान हो गया?

– क्या पूस की रात में सूअर हलकू का खेत चर गये?

– क्या सुजान भगत का लड़का मर गयाय क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?

नहीं मुझे लगता है माधो औरत के कफन के चन्दे की शराब पी गया।

वही मुस्कान मालूम होती है।

मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?

क्या बहुत चक्कर काटते रहे?

क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील–दो–मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?

चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है।

कुम्भनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने–आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा–

‘आवत जात पन्हैया घिस गयी, बिसर गयो हरी नाम।’

और ऐसे बुलाकर देनेवालों के लिए कहा गया था–– ‘जिनके देखे दु:ख उपजत है, तिनकों करबो परै सलाम!’ चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?

मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज जो परत–दर–परत सदियों से जमती गयी है, उसे शायद तुमने ठोकर मार–मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया।

तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम–धरम’ वाली कमजोरी? ‘नेम–धरम’ उसकी भी जंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुस्कुरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम–धरम’ तुम्हारा बन्धन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी।

तुम्हारी यह पाँव की अँगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?

तुम क्या उसकी तरफ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते–मारते तुमने जूता फाड़ लिया?

मैं समझता हूँ। तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझाता हूँ और यह व्यंग्य–मुस्कान भी समझाता हूँ।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो। उन पर जो अँगुली छिपाये और तलुआ घिसाये चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बचाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो–– मैंने तो ठोकर मार–मारकर जूता फाड़ लिया, अँगुली बाहर निकल आयी, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को ढाँकने की चिन्ता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?

मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझाता हूँ, अँगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य–मुस्कान समझता हूँ।

 
 

 

 

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