अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

वन नेशन नो इलेक्शन

हाल ही में बहुत अधिक बहस हुई है – मेरी राय में पूरी तरह से गुमराह – वन नेशन, वन इलेक्शन के इस सुपर आइडिया पर। इस कॉलम के नियमित पाठकों को पता होगा कि मैं “गुमराह” जैसे शब्दों का हल्के ढंग से इस्तेमाल नहीं करता। इसलिए जब मैं कहता हूँ कि “गुमराह”, तो मेरा मतलब यह है कि कोई बहस नहीं होनी चाहिए बल्कि यह कि सही बहस होनी चाहिए।

लेकिन इससे पहले कि हम सही बहस शुरू करें, पहले गैर–बहस से छुटकारा पायें–– क्या वन नेशन, वन इलेक्शन’ आज जो है, उससे बेहतर विचार है? निस्सन्देह हाँ! आज हमारे पास ‘वन नेशन, बेहद इलेक्शन’ है। और यह आज भारत की सबसे बड़ी समस्या का मर्म स्थल है–– बहुत अधिक लोकतंत्र। आप यहाँ जितने अधिक चुनाव होते हैं, कुछ भी बदलना उतना ही असम्भव होता है।

उदाहरण के लिए मुम्बई को ही लीजिए। हर साल इस विराट शहर के नागरिक पानी की बाल्टी में गिरी चींटियों की तरह मानसूनी बाढ़ को सहते हैं। और फिर भी, जब से किसी को याद है, तब से वे नगर निगम चुनावों में उसी पार्टी को वोट देते आ रहे हैं। इसका कारण यह है कि वे चालाक लोग हैं जो अच्छी तरह समझते हैं कि चुनावों का जनता की समस्याएँ हल करने से कोई लेना–देना नहीं है। इसके विपरीत, यह चुनाव ही है जो लोगों के लिए समस्याएँ पैदा करता है। वास्तव में, चुनाव मानव जीवन और खुशहाली के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं–– वायु प्रदूषण, सड़क दुर्घटनाओं और कैंसर से भी बड़ा।

कोई भी व्यक्ति जिसका दिमाग सही है, वह इस बात से इनकार नहीं करेगा कि अगर चुनाव नहीं होते, तो साम्प्रदायिक हिंसा से मारे गये या अनाथ हुए लोगों की संख्या में भारी कमी आ जाती।

यह अच्छी तरह से स्थापित है कि साम्प्रदायिक दंगों की सम्भावना किसी क्षेत्र या राज्य में चुनाव की सम्भावना के सीधे अनुपात में होती है।

जीवन रक्षा

सिर्फ दंगाई ही नहीं, यहाँ तक कि पाकिस्तान भी भारत में बड़े चुनावों से पहले अतिसक्रिय हो जाता है – हमारी सुरक्षा बलों पर हमला करने के लिए सीमा पार से आतंकवादियों को भेजना, भारत को सर्जिकल स्ट्राइक करने के लिए मजबूर करना और ‘जय श्री राम’ का जाप न करके गुप्त रूप से पाकिस्तान का समर्थन करनेवाले अपने ही देश के लोगों की भीड़ हत्या के लिए भारतीयों को मजबूर करना। अगर कम चुनाव होते–– या सिर्फ एक चुनाव –– तो कल्पना करें कि हम कितने जीवन बचा सकते थे! जीवन और सम्पत्ति के नुकसान के अलावा, बहुत सारे चुनावों को आयोजित करने की मौजूदा प्रथा का सबसे अधिक नुकसान मानसिक है – यह अधिक से अधिक लोगों को भ्रम की ओर धकेल रहा है कि वे वोट देकर चीजों को बदल सकते हैं। फिर दुर्लभ संसाधनों की भारी पैमाने पर बर्बादी भी होती है–– भारत जैसा गरीब देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यह बहुत ही चैंकाने वाला है कि सरकार की उपलब्धियों (जैसे वे हैं) को प्रचारित करने के लिए विज्ञापनों पर किये जानेवाले हजारों करोड़ के खर्च पर जो लोग हो–हल्ला मचाते हैं, उन लोगों के लिए हर साल कई चुनावों में खर्च होने वाले हजारों करोड़ को लेकर कोई समस्या नहीं है। और फिर भी, भारत के लोकतंत्र का, जैसा कि यह है, उसके बारे में सहभागी प्रचार–कौतुक के ऊपर खुले दिल से खर्च न किया जाय तो आम चुनाव का मतलब ही क्या है?

दूसरे शब्दों में, आर्थिक तर्कसंगति यह माँग करती है कि हम चुनावों की संख्या को जितना हो सके, उतना कम कर दें, ताकि करदाताओं के पैसे का अधिक उत्पादक रूप से उपयोग किया जा सके। जरा सोचिए कि हम एक साथ चुनाव कराकर बचायी गयी धनराशि से कितनी और मूर्तियों का निर्माण कर सकते हैं? नटखट अयीअयीयोग के एक अनुमान के अनुसार, अगर हम देश के सभी चुनावों को पूरी तरह से एक साथ करने लग जाते हैं, ताकि लोकसभा चुनावों के साथ बाकी सभी चुनाव भी पाँच साल में सिर्फ एक बार ही हुआ करें, तो भारत में गाँधी की हर एक प्रतिमा की जगह एक गोडसे की प्रतिमा लगाने के लिए हमारे पास भरपूर धन बच जायेगा और हर भारतीय के पेटीएम बटुए में 15 लाख रुपये भी चले जाएँगे।

एक ही समय में

लेकिन इसके लिए हमें सिर्फ विधानसभा और लोकसभा चुनाव ही नहीं, बल्कि सभी लायंस क्लब चुनाव, रोटरी क्लब चुनाव, आरडब्ल्यूए चुनाव, छात्र संघ चुनाव और भारत के हर स्कूल के हर वर्ग के हर सेक्शन के क्लास मॉनीटर तक के चुनाव भी एक साथ करने होंगे।

मेरे दिमाग में, यह बात पूरी तरह से समझ में आ रही है क्योंकि चाहे कोई भी चुनाव हो, हर चुनाव के लिए भारत में केवल एक ही प्रभावशाली उम्मीदवार है।

यही हमें अन्तत: इस बहस तक लाता है जिसमें हमें वास्तव में उतरना चाहिए–– एक सुधार के रूप में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ अपने आप में पर्याप्त नहीं है, यह देखते हुए कि कोई विपक्ष नहीं है जो किसी एक चुनाव को भी कोई सार्थक प्रतियोगिता बना पाये। तो फिर ‘वन नेशन, जीरो इलेक्शन’ क्यों नहीं? कोई भी चुनाव करवाना, जब उसका नतीजा गुजरे जमाने की बात हो गयी हो, एक घिसी–पिटी, नेहरूवादी मानसिकता की मूर्खता है। यदि हम चीन जैसा शक्तिशाली देश बनना चाहते हैं, जो आपकी जानकारी के लिए, न केवल नेहरू को हराया, बल्कि भारत के विपरीत, यूएनएससी में उसकी एक स्थायी सीट भी है, तो हमें इस मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है।

चीन में कितने चुनाव होते हैं? शून्य। यही वह रास्ता है जिसे हमें अपनाना चाहिए–– ‘वन नेशन, जीरो इलेक्शन’। एक ऐतिहासिक और भावुक कारण भी है कि हमें ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ ’को छोड़कर ‘वन नेशन, जीरो इलेक्शन’ के पक्ष में क्यों आना चाहिए–– 1 जो एक अरबी अंक है, उसकी जगह भारत ने 0 का आविष्कार किया। हमें शून्य होने का अधिकार है।

(लेखक ‘द हिन्दू’ के सामाजिक मामलों के सम्पादक हैं। यह लेख उसी अखबार से साभार लेकर अनूदित है।)

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