जुलाई 2019, अंक 32 में प्रकाशित

निजीकरण, इतना लुभावना शब्द और इतना घातक!

पिछले दिनों बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या डेढ़ सौ पार पहुँची, कारण जागरूकता की कमी, सही चिकित्सा न मिलना, चिकित्सा सुविधाओं में कमी, गरीबी, कुपोषण आदि। जिस अस्पताल की दुर्व्यवस्था की चर्चा रही उसी अस्पताल का दौरा स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने 5 साल पहले भी किया था और वही तमाम वादे किये थे जो इस साल फिर किये। एम्स के विशेषज्ञों की टीम ने सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक काहिली को घटना का कारण बताया।

यह मात्र एक बानगी है सरकारी व्यवस्था की। सरकार हम क्यों चुनते हैं और किसी सरकार से हम क्या उम्मीद करते हैं? यही कि वह मूल नागरिक सुविधाआंे, जैसे शिक्षा, चिकित्सा, सड़क परिवहन, पानी, बिजली, शौचालय, कचरा प्रबन्धन आदि को सुगम बनाये, रोजगार, खाद्य, सूचना और आम नागरिक सुरक्षा प्रदान करेय कृषि, व्यापार आदि की बढ़ोतरी के लिए काम करे तथा नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करे।

फिलहाल गरीबी, कुपोषण, रोजगार, कृषि, पर्यावरण और पानी की खौफनाक स्थिति जैसे ज्वलन्त मुद्दों, समाज में समरसता के दिनों–दिन खत्म होने तथा गृहयुद्ध की स्थिति में पहुँचने जैसी समस्याओं को एकबारगी छोड़कर नागरिक सुविधाओं की ही बात करें तो हम पाते हैं कि आम नागरिक महज सरकारी निकायों के भरोसे नहीं रह सकता। वह लगभग हर दूसरी सुविधा के लिए निजी सेक्युरिटी कम्पनियों को अतिरिक्त धन चुका रहा है।

सरकार जिस तेजी से निजीकरण कर रही है, उससे सवाल यह उठता है कि सब कुछ निजी हाथों में सौंप देना ही अगर सरकार का काम है तो हम सरकार चुनते ही क्यांे हैं और टैक्स किसलिए देते हैं? हम सीधे निजी स्कूल, अस्पताल, सड़क, ट्रेन, हवाई जहाज, टेलीफोन, मोबाइल, पानी, बिजली, सीवर आदि के लिए सीधे निजी कम्पनियों को ही क्यों न पैसा चुका दंे?

गरीब की तो यूँ भी मौत है, वह निजीकरण का भार ही नहीं उठा सकता, उसको चिकित्सीय सुविधा न मिली तो मर जाएगा, इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता। उसके बच्चे अशिक्षित रहेंगे, वह जीवन की छोटी–छोटी सुविधाआंे को बटोरने में ही जीवन की तमाम ऊर्जा खपाकर एक गुलाम, एक सस्ते श्रमिक से अधिक कुछ नहीं रह जाएगा। मगर सरकार को वोट वह भी देता है।

और लाखों करोड़ का चुनावी खर्च बताता है कि राजनीतिक पार्टियाँ अपने चुनाव खर्च के लिए इन्हीं निजी कम्पनियों के मालिकों के पैसों की मोहताज हैं, तब गरीब आदमी क्या बस वोट देने के लिए है? उस वोट का फायदा उसे क्या होना है जब सरकार भारत–पाकिस्तान के नाम पर बनती हो, ‘मशान–कब्रिस्तान पर बनती हो, उसके लिए बनायी गयी, क्रियान्वित की गयी योजनाओं पर नहीं।

लोकतंत्र एक भव्य धोखा हो गया है, जनता के नाम पर सारी लूटखसोट, निजीकरण, क्योंकि वोट जनता ने दिया है, कितने प्रतिशत ने ठुकरा दिया वह कहीं दर्ज ही नहीं होता। एक बार वोट साध लिए, फिर जनता महज दर्शक है, ज्यादा से ज्यादा चिल्ला लेगी, उस पर भी अब ये कहा जाने लगा है कि शुक्र करो चिल्ला रहे हो, यही लोकतंत्र है।

वह जमाना आयेगा जब कम्पनियों के सीइओ सीधे राज करेंगे? या कभी नहीं आएगा, क्योंकि सीधी लूट दिखती है, जबकि जनता द्वारा चुने जाने के ढोंग से लूट की छुपमछुपाई चलती रहती है।

रेलवे गया, बीएसएनएल गया (जियो को सरकार ने बढ़ावा दिया), एयर इन्डिया जाने वाला है, ओएनजीसी जा रहा है, एचएएल को तो खुद सरकार ने दरकिनार करके रिलाएन्स को राफेल दिलवाया, मानो वह सगा बच्चा हो और एचएएल सौतेला, और जाने कितनी सरकारी संस्थाएँ निजी कम्पनियों के हवाले होने वाली हैं। सरकार क्या करेगी फिर? मीडिया प्रबन्धन? कि वो जनता को गुमराह करती रहे? गलत मुद्दों पर फँसाये रखे?

अब सवाल यही है, कि जिस तरह बिना वोट दिये भी सरकार तो बन ही जाती है, टैक्स देना न देना भी चुना जा सकता है क्या?

मात्र 100 बड़ी कम्पनियों के जितने लाख करोड़ रुपये रिजर्व बैंक के डूबे खाते में डाल दिये गये हैं, उनको कर्ज देने का पैसा सरकार कहाँ से लाती है? जब वह पैसा डूबता है तो किसका डूबता है? क्या वह जनता का पैसा नहीं? क्या टैक्स के रूप में चुकायी गयी रकम अन्तत: उन्हीं पूँजीपतियों के पास संचित नहीं हो रही?

सरकार जिस गति से सरकारी निकायों का निजीकरण कर रही है उसका असर महज मूलभूत नागरिक सुविधाओं के महँगे होने पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि जंगल, जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर निजी कब्जे में बढ़ोतरी होगी, कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा मिलेगा, बड़े उद्योगपतियों के हाथ में ही व्यापार का नियंत्रण होगा, और इस समूचे नियंत्रण का असर नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के हनन पर भी पड़ेगा।

हम जितनी जल्दी निजीकरण के खतरे को समझ लें उतना बेहतर, लोकतंत्र में सरकार की भूमिकाओं पर सवाल करें, और उससे अपने वोट का ही नहीं, पैसों का भी हिसाब लें।

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