फरवरी 2023, अंक 42 में प्रकाशित

‘नयी शिक्षा नीति’ : वंचित समुदायों को शिक्षा से दूर करने की साजिश

बीते 8 दिसम्बर 2022 को अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी ने ‘मौलाना आजाद राष्ट्रीय छात्रवृत्ति’ को बन्द करने की घोषणा की। यह छात्रवृत्ति आर्थिक रूप से कमजोर अल्पसंख्यक समुदायों के छात्र–छात्राओं को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अन्तर्गत आने वाले सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में मिलती थी। इसके बन्द होने से अब कितने ही नौजवान आर्थिक समस्या के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को मजबूर हैं। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में छात्र और शिक्षक इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं। सरकार का कहना है कि अन्य छात्रवृत्तियों के कारण अब इसकी जरूरत नहीं रही। सरकार के इस दावे में कितनी सच्चाई है यह जानने के लिए हमें इस छात्रवृत्ति को शुरू करने की वजह को जानना होगा।

2006 में अल्पसंख्यक समुदायों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का सर्वे करने के लिए न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर के नेतृत्व में ‘सच्चर कमेटी’ का गठन किया गया था। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 2006 तक मुस्लिमों में साक्षरता दर मात्र 59 फीसदी है और उच्च शिक्षा में इनकी हिस्सेदारी बेहद कम है। 2006 तक मात्र 4 फीसदी मुस्लिम नौजवान ही स्नातक डिग्री या डिप्लोमा धारक थे। इस रिपोर्ट ने सरकार को चेताया कि अगर मुस्लिम नौजवानों को आर्थिक मदद नहीं दी गयी तो यह संख्या और घट जाएगी। इस रिपोर्ट के दबाव में सरकार ने 2009 में यह छात्रवृत्ति लागू की थी। इस छात्रवृत्ति के लागू होने से 2021 तक लगभग 10 हजार युवाओं ने इस योजना का लाभ उठाया जिसमें 50 फीसदी से ज्यादा छात्राएँ थीं। इस छात्रवृत्ति के कारण अल्पसंख्यक समुदायों के बहुत कम छात्र–छात्राएँ ही सही उच्च शिक्षा और शोधकार्य कर पाये। लेकिन सरकार ने उनका यह एकमात्र रास्ता भी अब बन्द कर दिया है।

मुस्लिम छात्रों का प्रतिनिधित्व पहली कक्षा से बारहवीं कक्षा तक जाते–जाते 15 फीसदी से घटकर 7 फीसदी तक रह जाता है। उच्च शिक्षा में तो इनकी संख्या बेहद कम है। इस खाई को पाटने की जगह सरकार इसे गहरा करने का काम कर रही है। ऐसे में सरकार का यह कहना कि अब इस छात्रवृत्ति की जरूरत नहीं रह गयी है, सरासर झूठ है। दरअसल पिछले एक साल में सरकार ने वंचित समुदायों से आने वाले छात्रों को मिलने वाली इसी तरह की अनेक छात्रवृत्तियों को बन्द कर दिया है। इनमें प्री–मैट्रिक छात्रवृत्ति मुख्य थी। एक तरफ छात्र बेतहाशा बढ़ती फीस के खिलाफ देश–भर में आन्दोलनरत हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकार छात्रों को मिलने वाली थोड़ी–बहुत सुविधाओं पर भी हमला कर रही है।

इन छात्रवृत्तियों को बन्द करने के पीछे सरकार का तर्क है कि उसके पास पर्याप्त बजट नहीं है। लेकिन कैग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2007 से 2020 के बीच शिक्षा के लिए आवंटित बजट में से 2 लाख करोड़ रुपये खर्च ही नहीं किये गये। इसका मतलब कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही सरकारों ने सार्वजानिक शिक्षा को खत्म करने का काम किया है। लेकिन बीजेपी ने एक कदम आगे बढ़ाकर इसकी रफ्तार तेज कर दी है। इसका एक उदहारण यह है कि पिछले सालों में ‘हायर एजुकेशन फाइनेंसियल एजेंसी’ यानी हेफा का बजट तेजी से घटाया है। हेफा की स्थापना उच्च शिक्षा को सुधारने के लिए की गयी थी। पिछले साल हेफा ने 2 हजार 750 करोड़ रुपये के बजट में से केवल 250 करोड़ रुपये ही खर्च किये। इससे सरकार की मंशा साफ जाहिर है कि वह शिक्षा के निवेश को तेजी से घटा रही है। यह काम देशी–विदेशी पूँजीपतियों के मुनाफे के लिए शिक्षा के क्षेत्र को खोलने के लिए किया जा रहा है। यह काम नियोजित तरीके से किया जा रहा है। ‘नयी शिक्षा नीति–2020’ के दास्तावेज सरकार के इन्हीं उद्देश्यों को बता रहे हैं।

1990 से ही भारत में उच्च शिक्षा को निजीकरण के रास्ते पर धकेल दिया गया था। उसके बाद प्राइवेट उच्च शिक्षण संस्थान आकार लेने लगे, जिनमें इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट और मेडिकल से सम्बन्धित संस्थान मुख्य हैं। आज 30 साल बाद लगभग 72 फीसदी पूर्वस्नातक और 60 फीसदी पोस्ट ग्रेजुएट इन्ही निजी संस्थानों से आते हैं। सार्वजानिक संस्थानों के मुकाबले इनमें शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब है, जबकि फीस बेहद महँगी। देश का केवल माध्यम और उच्च वर्ग ही इनमें शिक्षा हासिल करने में समर्थ है। लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर बहुसंख्यक समुदाय उच्च शिक्षा के लिए सार्वजनिक विश्वविद्यालयों पर निर्भर है। इनमें मिलने वाली छात्रवृत्तियों के कारण ही वे अपनी पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। ऐसे छात्रों की संख्या करोड़ों में है।

सरकार सार्वजनिक संस्थानों पर हमलावर है। तेजी से इनमें बदलाव किये जा रहे हैं। नेप के तहत अब इन विश्वविद्यालयों को मिलने वाला फण्ड भी बन्द कर कर्ज दिया जा रहा है। इसके चलते फीस में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है और सहायता प्राप्त पाठ्यक्रमों को स्व–वित्तपोषित में बदला जा रहा है। पिछले 5 सालों में निजी विश्वविद्यालयों की तुलना में केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या एक तिहाई से भी कम हो गयी है। इसके साथ ही केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में 70 हजार प्रोफेसरों के पद खाली हैं। देश भर में सरकार की इन नीतियों का जबरदस्त विरोध हो रहा है। लेकिन सरकार इन सभी विरोधों को कुचलने पर आमदा है। छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले छात्र संघ का भी सरकार ने गला घोट दिया है। छात्रों से उनकी बात कहने का भी अधिकार छीना जा रहा है। नेप में सरकार ने ‘बोर्ड ऑफ गवर्नेंस’ नामक एक नये तंत्र को विश्वविद्यालयों पर थोपा है। इसके जरिये सरकार विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को खत्म करके अपनी नीतियों को एकतरफा लागू कर रही है।

सरकार ने उच्च शिक्षा के साथ ही सार्वजनिक प्राइमरी स्कूलों पर भी हमला तेज कर दिया है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश में दस लाख स्कूली अध्यापकों की कमी है। साथ ही हमारे देश में 30 करोड़ से ज्यादा लोग आज भी निरक्षर हैं। लेकिन इन समस्याओं को हल करने की जगह नेप इन्हें और अधिक बढ़ाने का काम कर रही है। सरकार ने प्राइमरी स्तर तक मुफ्त शिक्षा हासिल करने का अधिकार खत्म कर दिया है। अब यह जिम्मेदारी एनजीओ को दे दी गयी है। इसके साथ ही सरकार ने 50 से कम छात्रों वाले स्कूलों को बन्द करने और आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्तियाँ को खत्म करने की भी घोषणा की है। इन दोनों फैसलों को साथ देखने पर यह साफ है कि सरकार अब स्कूलों में भी अपने निवेश को कम कर रही है। इसके चलते आने वाले समय में लाखों बच्चों को थोड़ी बहुत मिलने वाली सार्वजनिक शिक्षा भी बन्द हो जाएगी। साथ ही हजारों शिक्षकों को भी अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, जो पहले से चल रही बेरोजगारी की समस्या को और विकराल कर देगी। वहीं दूसरी तरफ एनजीओ के मालिक करोड़ों रुपये की हेरा–फेरी करेंगे। एक अन्तरराष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा पर खर्च करने के मामले में पूरी दुनिया में भारत का 143वाँ स्थान हैं। एक तरफ तो सरकार शिक्षा के खर्च को बिलकुल कम कर अपनी जिम्मेदारी से मुँह चुरा रही है, वहीं दूसरी और शिक्षा के माफियाओं का कारोबार दिन–दुनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा है। निजी शिक्षा संस्थानों के लुटेरे मालिकों की कतार प्रतिदिन लम्बी होती जा रही है।

नेप शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी निवेश को कम करके इसके दरवाजे देशी–विदेशी पूँजी के लिए खोल रही है। इसके बारे में व्यापकता से जानने के लिए ‘देश–विदेश’ पत्रिका के अंक–36 का सम्पादकीय पढ़ना बेहद आवश्यक है। इस लेख में ‘नयी शिक्षा नीति’ को उसके असली नीति निर्धारक ‘गैट्स समझौते’ के साथ जोड़कर समझाया गया है। इस समझौते के तहत शिक्षा को बाजार की शक्तियों के अनुरूप तेजी से बदला जाना है। इसका मतलब है शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी बजट को तेजी से घटाना, आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को मिलने वाले सभी तरह के आरक्षण बन्द करना आदि। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में खोलने की भी मंजूरी देकर उन्हें अपने मनमाने तरीके से फीस बढ़ाने या फिर किसी प्रकार की सहायता देने या न देने का अधिकार देना है। इसका सीधा फायदा शिक्षा के क्षेत्र में लगे मुट्ठी–भर देशी–विदेशी पूँजीपतियों को मिलेगा। वहीं दूसरी तरफ लाखों वंचित–शोषित समुदायों से आने वालों छात्रों को हाशिये पर धकेल दिया जाएगा। आज दो साल बाद इस लेख में जिन चीजों को चिन्हित किया गया था, वह हमारे सामने घटित हो रही हैं।

एक तरफ तो सरकार नेप के जरिये शिक्षा के व्यवसायीकरण की रफ्तार तेज कर रही है वहीं दूसरी तरफ इसका भगवाकरण भी किया जा रह है। इसके जरिये सरकार देश की बौद्धिक सम्पदा पर भी हमला कर रही है। 2020 में हरिद्वार में आयोजित एक कार्यक्रम में तत्कालीन उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने नेप के भगवाकरण को खुलकर समर्थन दिया था। उन्होंने कहा कि हम अब भारत की प्राचीन परम्पराओं पर आधारित शिक्षा की तरफ लौटेंगे। लेकिन यह भारतीय परम्परा न होकर आरएसएस की प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक जहर फैलाने का एजेण्डा है।

सरकार के इशारों पर यूजीसी ने हाल ही में पूर्व स्नातक पाठ्यक्रम से आर एस शर्मा और इरफान हबीब जैसे मार्क्सवादी इतिहासकारों की किताबों को पाठ्यक्रम से हटा दिया है। यहाँ तक कि धर्मनिरपेक्ष साहित्य, जैसे कौटिल्य अर्थशास्त्र, चरक संहिता और कालिदास की कविताओं को भी सरकार बर्दास्त नहीं कर पा रही है। यूजीसी ने नये पाठ्यक्रम की रूपरेखा में यह साफ लिखा है कि अब हम इतिहास की किताबों में केवल भारत का गौरवमय इतिहास पढ़ेंगे। इस गौरवमय इतिहास का मतलब मुस्लिमों के प्रति झूठे इतिहास को गढ़कर साम्प्रदायिक माहौल की बुनियाद डालना है। बीए के कोर्स में ‘बाबर के आक्रमण से पहले का भारत’ नामक विषयों को पढ़ाया जाएगा। जाहिर है कि यह इतिहास को तोड़–मरोड़कर मुस्लिम विरोधी बनाना है। वहीं दूसरी तरफ ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत आने के दौर को ‘प्रादेशिक विस्तार’ बताया जा रहा है। सीबीएसई ने भी इतिहास और सामाजिक विज्ञान के 11वीं और 12वीं के पाठ्यक्रम में बदलाव कर जनवाद, धर्मनिरपेक्षता, औद्योगिक क्रान्ति आदि से जुड़े हुए अनेक विषय हटा दिये हैं। फैज अहमद फैज की कितनी ही प्रगतिशील रचनाओं को भी हटा दिया गया है। वहीं जातिवाद को बढ़ावा देने वाली भागवत गीता को गुजरात में मोरल साइंस की किताबों में शामिल किया जा रहा है।

नयी शिक्षा नीति के तहत सरकार शिक्षा के भगवाकरण और व्यवसायीकरण पर पुरजोर काम कर रही है। सरकार शिक्षा को संकीर्णतावादी सोच और आरएसएस के प्रतिक्रियावादी विचारों पर आधारित कर रही है। शिक्षा का व्यवसायीकरण तो 1990 के दशक से ही शुरू हो गया था लेकिन 2014 के बाद से भाजपा सरकार इस व्यवसायीकरण को बढ़ाने के साथ–साथ भगवाकरण करने की मुहिम पर भी काम कर रही है। हिन्दुत्ववादी शिक्षा का व्यापारिक शिक्षा के साथ गहरा सम्बन्ध है। एक तरफ तो बीजेपी शिक्षा के पश्चिमीकरण के खिलाफ बात कर रही है, वहीं दूसरी तरफ विदेशी पूँजीपतियों के लिए इसके दरवाजे खोल रही है। शिक्षा के ‘भारतीयकरण’ के अन्दर कोर्पोरेटीकरण का बड़ा एजेण्डा छुपा हुआ है। 

Leave a Comment