अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

कश्मीरी पण्डित घाटी के अपने मुसलमान भाइयों के बीच  सुरक्षित हैं : पूर्व वाइस मार्शल कपिल काक

एजाज अशरफ : आप सहित छह लोगों ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है जबकि अधिकांश कश्मीरी पण्डितों ने जम्मू कश्मीर के संवैधानिक दर्जे पर किये गये बदलाव का समर्थन किया है। एक कश्मीरी पण्डित होने के नाते इसे आपने ऐसा क्यों किया?
कपिल काक : मेरी बस एक यही पहचान नहीं है। सबसे पहले तो मैं इस दुनिया का नागरिक हूँ और अपने देश पर फक्र करने वाला हिन्दुस्तानी हूँ। मैं 1960 में भारतीय वायु सेना में शामिल हुआ और मैंने लड़ाकू विमान उड़ाये। वायु सेना में रहते हुए मैं अलग–अलग संस्कृतियों से वाकिफ हुआ। मैं कश्मीरी पण्डित होने से पहले एक कश्मीरी हूँ। मैं अनुच्छेद 370 को खत्म किये जाने और जम्मू कश्मीर के पुनर्गठन का समर्थन नहीं करता।
एहसास : कश्मीरी होने और कश्मीरी पण्डित होने में क्या फर्क है?
काक : कश्मीरी सजातीय–धार्मिक पहचान है और यह रहन–सहन, खानपान, संगीत, धार्मिक ग्रंथों, भूगोल और इतिहास से तय होती है। ये सब ऐसे तत्व हैं जो एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों की मानसिकता और उनके चरित्र का निर्माण करते हैं। मिसाल के तौर पर, कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पण्डितों के तौर–तरीकों पर वहाँ के मौसमों का समान असर होता है। जिसे हम ‘कश्मीरियत’ कहते हैं वह कश्मीरी पण्डित और कश्मीरी मुसलमान में अन्तर नहीं करती। दोनों में बस यही फर्क है कि एक मन्दिर जाता है और दूसरा मस्जिद। वहाँ ऐसे मन्दिर और सूफी दरगाहें हैं जहाँ दोनों जाते हैं। आज भी कश्मीर की मस्जिदों में जिस तरह से दरूद शरीफ को पढ़ा जाता है वह वैदिक और संस्कृत मंत्रों की तरह सुनाई पड़ता है। मैं जब किसी कश्मीरी मस्जिद में जाता हूँ और दरूद शरीफ का पाठ सुनता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं किसी मन्दिर में पहुँच गया हूँ। वह पाठ भजन की तरह सुनाई पड़ता है। दुनिया में कहीं भी यहाँ तक कि जम्मू में भी, दरूद शरीफ को कश्मीर की तरह नहीं पढ़ा जाता।
हाँ, कश्मीरी पण्डितों की अपनी एक अलग संस्कृति है लेकिन मेरे लिए कश्मीरी पण्डित होना व्यापक कश्मीरी पहचान का एक छोटा हिस्सा भर है।
एजाज : लेकिन आपका समुदाय कश्मीरी मुसलमानों को आपके चश्मे से नहीं देखता।
काक : यहूदी मूल के फ्रांसीसी दार्शनिक जाक देरिदा की तरह कश्मीरी पण्डितों के विचारों को डिकंस्ट्रक्ट (विरचना) करने की आवश्यकता है। घाटी के हजार साल पुराने भू–सांस्कृतिक परिवेश से 1990 और 1991 में बेदखल कर दिये जाने के दर्द, निराशा और हार के भाव को मैं भी साझा करता हूँ। उन सालों में धार्मिक उग्रवाद और उससे सम्बन्धित हिंसा अपने चरम पर थी। मुख्यतौर पर इसे पाकिस्तानी संस्थापक पक्ष ने हवा दी थी। हाल के सालों में कश्मीर के तीन जानेमाने लोगों ने अपनी गलतियाँ मानी हैं और स्वीकार किया है कि बहुसंख्यक समुदाय को कश्मीरी पण्डितों की बेदखली रोकने के लिए ज्यादा प्रयास करने की जरूरत थी। ये लोग हैं : जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फेंस के नेता उमर अब्दुल्ला, राइजिंग कश्मीर के संस्थापक सम्पादक मरहूम शुजात बुखारी और पत्रकार और कश्मीर : रेज एण्ड रीजन किताब के लेखक गौहर गिलानी।
एजाज : जिस वक्त कश्मीरी पण्डितों का नस्लीय सफाया किया जा रहा था, क्या उस वक्त आपका परिवार घाटी में था?
काक : हमारा और मेरी पत्नी का घर श्रीनगर में था। हमने अपने घरों को कौड़ियों के दाम बेच दिया। अन्य कई कश्मीरी पण्डितों ने भी यही किया। हमारे कई रिश्तेदार घाटी में रहते थे। डर और चीजों के हाथों से निकल जाने की सोच के चलते, वे सब घाटी छोड़कर चले आये। उन लोगों को लग रहा था कि वे जल्द वापस चले जाएँगे। घाटी में 700 कश्मीरी पण्डित मार दिये गये। यह उस कहावत की तरह था कि “एक मरे और हजार डरे।” मस्जिदों से लाउडस्पीकरों में कश्मीरी पण्डितों को घाटी छोड़ कर चले जाने की धमकियाँ दी जाती थीं। इसके लिए सिर्फ पाकिस्तानी गिरोह ही जिम्मेदार नहीं थे। कश्मीर के अपने आतंकी समूह पाकिस्तानी संस्थापक पक्ष की उस योजना का हिस्सा बन गये जिसके तहत माना जाता था कि कश्मीरी पण्डितों को घाटी से बेदखल करना निजाम ए मुस्तफा या अल्लाह के शासन के लिए जरूरी है।
घाटी में 9000 कश्मीरी पण्डित आज भी शान्ति के साथ रह रहे हैं। यहाँ तक कि आतंकवाद का गढ़ माने जाने वाले दक्षिण कश्मीर में आज भी 60 से 70 हजार सिख रह रहे हैं। कश्मीर ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहा है।
एजाज : 1989–1991 की घटनाओं ने कश्मीरी पण्डितों के मनोविज्ञान पर निश्चित रूप से असर डाला है।
काक : यहाँ दो विषयों की वैचारिक स्पष्टता जरूरी है। पहली बात तो यह कि 1990 और 1991 के बीच जो घटित हुआ वह धार्मिक नहीं, राजनीतिक आन्दोलन था और यह आज तक ऐसा ही है। जनता के विचार को प्रभावित करने के लिए कहीं–कहीं धर्म का इस्तेमाल हुआ होगा लेकिन कश्मीर और शेष भारत में ऐसे तत्व थे जिन्होंने इसे केवल एक धार्मिक आन्दोलन की तरह दिखाया।
दूसरी बात, कश्मीर को छोड़ कर जाने वाले कश्मीरी पण्डितों से दक्षिणपंथी ताकतों ने हाथ मिला लिया। कुछ बहुसंख्यकवादी राज्य सरकारों ने सरकारी कॉलेजों में इनके लिए सीटें आरक्षित की जिससे कश्मीरी पण्डितों का सामाजिक उत्थान हुआ। निर्वासन की पीड़ा ने इस उदार समुदाय को बहुसंख्यकवादी बना दिया। मैं अपने समुदाय के उदार 20 प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करता हूँ। ये 20 प्रतिशत कश्मीरी पण्डित, त्रासदी और वंचना के बावजूद, संविधान, लोकतंत्र, समावेशी और बहुलतावादी भारत के प्रति प्रतिबद्ध हैं।
एजाज : अभी आपने कहा कि आप 20 प्रतिशत उदार कश्मीरी पण्डितों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो क्या आपको समुदाय के उन लोगों से धमकियाँ नहीं मिलतीं जो 370 को हटाये जाने के पक्ष में हैं?
काक : मैंने भारत–पाकिस्तान की दो जंगों में हिस्सा लिया है और एक बार मेरा लड़ाकू विमान एंटी एयरक्राफ्ट गन के निशाने पर आ गया था। यदि मैं धमकियों की तुलना उपरोक्त घटनाओं से करूँ तो ये बहुत कम है। बस इसलिए कि लोग मेरे खिलाफ हैं, मैं अपने विचारों और अपनी प्रतिबद्धताओं से समझौता नहीं कर सकता।
एजाज : आप और आपके जैसे 20 प्रतिशत लोगों पर अन्य कश्मीरी पण्डितों की तरह दक्षिणपंथी विचार का असर क्यों नहीं पड़ा जबकि आप के परिवार वालों को भी कश्मीर छोड़ कर आना पड़ा?
काक : बहुत दर्दनाक होता है अपने मन्दिरों से दूर कर दिया जाना, उस जमीन से बेदखल हो जाना जो अपनी है, उन मौसमों से दूर हो जाना जिनसे आपको मोहब्बत है। जिन लोगों ने बेदखली को भोगा है वही इस दर्द को भी समझ सकते हैं। लेकिन मैं कश्मीर में हमेशा नहीं रहा, जब नौजवान था तो घाटी से बाहर आ गया और 35 साल बाद रिटायर हुआ तो पारिवारिक सम्पत्ति खत्म हो चुकी थी और कश्मीर मेरा घर नहीं रह गया था। लेकिन घाटी में शान्ति प्रयासों के लिए ‘ट्रैक टू पहलो’ से जुड़े होने के चलते मैं हर साल यहाँ आता–जाता रहा जिससे मेरा भावनात्मक सम्बन्ध अटूट बना रहा।
द्वन्द्व राष्ट्र के जीवन का हिस्सा होते हैं। इस समझदारी को दर्द पर मरहम की तरह कैसे इस्तेमाल किया जाये? मैं लड़ाई में शरीक रहा हूँ और द्वन्द्व को समझता हूँ इसलिए मैं समझ सकता हूँ जो कश्मीर में हुआ वह एक आन्तरिक द्वन्द्व था जैसा कि नागालैण्ड, मिजोरम, असम या छत्तीसगढ़ में है। भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है।
एजाज : क्या आप यह कहना चाहते हैं कि कश्मीरी पण्डितों द्वारा अपने दर्द को न भुला पाने के कारण देश पर गहरा असर पड़ा?
काक : यह दुर्भाग्य की बात है कि मेरे समुदाय के मेरे अपने भाई जो बीती बातों को भुला नहीं पाये वे भारत की बहुसंख्यकवादी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन गये हैं। यह बात समझनी होगी कि घाटी से कश्मीरी पण्डितों की बेदखली ने बहुसंख्यकवादियों को ताकत दी है। कश्मीरी पण्डितों का घाटी से पलायन और बाबरी मस्जिद के गिरा दिये जाने में 2 साल का फासला है। उस मस्जिद के गिरने और मुम्बई में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाये जाने में बस दो महीनों का अन्तर था।
एजाज : क्या आपको लगता है कि कश्मीरी पण्डितों ने भारत सरकार के हाल के फैसले का स्वागत इसलिए किया क्योंकि उनको लगता है कि सरकार ने उनका बदला लिया है।
काक : जम्मू कश्मीर के दर्जे में बदलाव की सबसे निराशाजनक बात यह थी कि भारत भर में इसे जीत की तरह दिखाया गया। जीत की भावना से बीमारू टिप्पणियाँ निकली। उदाहरण के लिए एक आदमी ने कहा कि अब लोग गोरी कश्मीरी लड़कियों से ब्याह रचाएँगे। दूसरे ने कहा कि राज्य में स्त्री–पुरुष लिंगानुपात खराब है और अब कश्मीर से दुल्हन लाकर इसे ठीक किया जा सकता है। इससे घाटी में गहरे दर्द और आक्रोश का वातावरण बना क्योंकि कश्मीरी सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं। भारत की बहुलतावादी संस्कृति का उद्गम स्थल कश्मीर है जिसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बार–बार लिखा है। उन्होंने कहा कि भारत का विचार उन्हें कश्मीर से मिला है जहाँ अलग–अलग धर्मों के लोग सदियों से साथ रह रहे हैं और विरासत साझा करते है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1947 में पाकिस्तानी घुसपैठ के वक्त कश्मीरी मुसलमानों, हिन्दुओं और सिखों ने एक साथ नारे लगाये थे : “घुसपैठियों खबरदार, हम कश्मीरी हैं तैयार”।
एजाज : घाटी में फिलहाल कितने कश्मीरी पण्डित रह रहे हैं?
काक : घाटी के सौ से अधिक स्थानों पर तकरीबन 9000 कश्मीरी पण्डित हैं। उन्हें किसी तरह की सुरक्षा नहीं मिली हुई है, वे अपने मुस्लिम भाइयों के साथ रहते हैं। मीडिया में इनकी कहानियाँ नहीं दिखायी जाती।
एजाज : मुझे लग रहा था कि कश्मीर में बहुत कम कश्मीरी पण्डित होगें।
काक : 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया था कि घाटी में कश्मीरी पण्डितों के लिए वह 12000 नौकरियों का निर्माण करेंगे। यह केन्द्र और राज्य प्रायोजित नौकरियाँ होंगी। सिंह की इस घोषणा से पहले घाटी में कश्मीरी पण्डितों की संख्या 2800 के आसपास थी। सिंह की वजह से 9000 नौकरियाँ मंजूर हुर्इं जिनमें से 6000 पदों में नियुक्तियाँ हो चुकी हैं। इस तरह घाटी में कश्मीरी पण्डितों की संख्या 9000 पहुँच गयी। शुरुआत में ये लोग ट्रांसिट कैम्पों में रहते थे लेकिन बाद में कश्मीरी भाइयों से मेलजोल बढ़ने के बाद इन लोगों ने शहर में किराये के मकान लेकर रहना शुरू कर दिया।
एजाज : क्या आपने 9000 कश्मीरी पण्डितों से कभी बात की है?
काक : हाँ कई मर्तबा मैंने बात की। इन लोगों का कहना है कि उन्हें घाटी में कोई तकलीफ नहीं है। कभी कभार कोई बदमाश लड़का उनके मकानों में पत्थर मारता है लेकिन उन्हें नहीं लगता कि इसमें घबराने की बात है। उन्हें लक्षित नहीं किया जा रहा है। यह बताता है कि वे लोग खुश हैं। मेरे कुछ रिश्तेदार एयरपोर्ट से दो किलोमीटर दूर रहते हैं। उनका खुला ड्राइंग रूम है। पड़ोस के बच्चे उनके घरों में आते–जाते हैं। उनसे लोग चाय और खाने की दावत लेते हैं। 1980 की बात छोड़िए ये लोग अब तक ऐसे ही रह रहे हैं। सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी ने लोगों को सहन करने की नहीं उनसे मुहब्बत करने की बात की है। हमारी संस्कृति की प्रेरणा वहीं से आती है। 14वीं शताब्दी के कश्मीरी सन्तो, नन्द ऋषि और लालेश्वरी, ने भी यही बात कही है।
एजाज : आपने 1950 में कॉलेज में दाखिला लिया। 1947 से 1950 तक कई सारी घटनाएँ हुर्इं, जैसे कबाइलियों का हमला, राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह प्रस्ताव, साम्प्रदायिक दंगे और 1953 में नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी। इन घटनाओं से कश्मीर में मुस्लिम और पण्डितों के सम्बन्धों पर क्या असर पड़ा?
काक : 1990 और 1991 के डरावने वक्त के सिवा, दो समुदायों के रिश्तों में कभी तनाव नहीं रहा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1947 में पाकिस्तानी घुसपैठ के वक्त कश्मीरी मुसलमानों, हिन्दुओं और सिखों ने एकसाथ नारे लगाये थे : “घुसपैठियों खबरदार, हम कश्मीरी हैं तैयार।” उस वक्त कश्मीरी औरतें पाकिस्तानी घुसपैठियों से लोहा लेने के लिए बन्दूकें और लाठियाँ लेकर सड़कों पर उतर आयी थीं। उस वक्त का मशहूर नारा था, “शेर ए कश्मीर सुन्द क्या इरशाद–हिन्दू, मुस्लिम, सिख इत्तहाद (शेर ए कश्मीर क्या चाहते, मुस्लिम, हिन्दू, सिख हो एक)।” बँटवारे के वक्त जब शेष भारत जल रहा था, घाटी में एक भी हिन्दू को खरोच नहीं आई।
एजाज : भला ऐसा कैसे हुआ?
काक : कश्मीर मेलजोल वाली संस्कृति है, यहाँ की उदारता और सूफी शैव परम्परा के कारण ऐसा हुआ। जो लोग आपके साथ रहते हैं उनके खिलाफ आप कैसे हिंसा कर सकते हैं?
एजाज : राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को नहीं लगता कि कश्मीरी अवाम सरकार के कदम से नाराज है। हाल में उन्होंने बयान दिया था कि जम्मू–कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बदलाव करने के बाद से अब तक घाटी में एक भी गोली नहीं चली है?
काक : मरहूम शायर आगा शाहिद अली लिखते हैं, “वे लोग मायूसी को अमन बताते हैं।” मैं कहता हूँ कि कश्मीर में कब्रिस्तान वाली शान्ति है। कश्मीर में हालात बेहद संगीन हैं। मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि कश्मीर ने हिन्दुस्तान को कभी धोखा नहीं दिया बल्कि खुद हिन्दुस्तान ने कश्मीर के साथ हमेशा विश्वासघात किया। मेरे विचार से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने को कश्मीरी कभी स्वीकार नहीं करेंगे। यह उनकी विशेष पहचान का प्रतीक था। कश्मीर को भारत के एक महत्त्वपूर्ण राज्य से कम कर केन्द्र शासित प्रदेश बनाये जाने को भी कश्मीरी स्वीकार नहीं करेंगे।
1947 में जम्मू–कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह की शर्तों पर भारतीय संघ ने उन्हें विलय का प्रस्ताव दिया था। महाराजा ने रक्षा, विदेशी मामलों और संचार भारत को सौंपे थे। अन्य सभी मामलों में राज्य का अधिकार बरकरार था। 1953 में शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी के बाद केन्द्र सरकार ने नयी नीतियाँ और विकल्प तैयार किये। पहले समाज को बाँधे रखने के लिए भ्रष्टाचार को चुना। मुख्यमंत्री से लेकर चपरासी तक मालामाल हो गये। दूसरा, कठपुतली सरकार बनायी। तीसरा, अपनी चुनिन्दा कठपुतली को सत्ता में रखने के लिए चुनावों में धाँधली की और चैथा, गुपचुप तरीके से संविधानवाद लागू किया।
एजाज : गुपचुप तरीके से संविधान लागू करने से आपका तात्पर्य कहीं अनुच्छेद 370 को हटाये जाने से तो नहीं?
काक : बिल्कुल यही बात है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय संविधान के 97 अनुच्छेदों में से 94 अनुच्छेद और 395 धाराओं में से 260 धाराएँ जम्मू–कश्मीर में लागू हैं। यही कारण है कि कश्मीर में भारत के खिलाफ आक्रोश है। 1987 चुनावों में धाँधली कराने से रहा–सहा विश्वास भी खत्म हो गया। जिन युवा नेताओं को चुनावी धाँधली से हराया गया वे पाकिस्तान समर्थक बन गये क्योंकि पाकिस्तान घाटी में उग्रवाद शुरू करने के लिए उन्हें मदद दे रहा था।
5 अगस्त के निर्णयों से पहले भी राज्य स्वायत्त नहीं था। 5 अगस्त वाले निर्णयों ने बहुत ज्यादा बदलाव नहीं किया। यह बस एक वैचारिक कदम था जिसकी बात भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी। भारतीय जनता पार्टी के 2009, 2014 और 2019 के चुनावी घोषणा पत्रों में इसे हटाये जाने की बात थी। 5 अगस्त के निर्णयों के बाद कश्मीर में अलगाव की भावना गहरी हो गयी है क्योंकि लोगों में निराशा और अपमान की भावना है। इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान इस स्थिति का फायदा उठाएगा।
एजाज : भारत सरकार के धोखे की भावना ने क्या कश्मीरी मुसलमानों को वहाँ के पण्डितों के खिलाफ कर दिया?
काक : मैं सामान्यीकरण नहीं करना चाहता। मैं कहूँगा कि 1990 और 1991 में जो हुआ वह असाधारण बात थी, नहीं तो भला क्यों 9000 कश्मीरी पण्डित आज भी शान्ति के साथ वहाँ रह रहे होते। वे लोग सभी जगह रहते हैं, कश्मीर में आतंकवाद का गढ़ माने जाने वाले दक्षिण कश्मीर में भी रहते हैं। वहाँ आज भी 60 से 70 हजार सिख रह रहे हैं। कश्मीर ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहा है। 1989 और 91 में पाकिस्तान से आये लोगों ने कश्मीरी पण्डितों को निशाना बनाया था। हाँ, कुछ स्थानीय लोगों ने मदद की थी। कश्मीरी मुस्लिम संस्कृति में कश्मीरी पण्डित महिला को आरी से कटा नहीं जाता। यह कश्मीरी चरित्र का हिस्सा नहीं है।
एजाज : क्या आपको लगता है कि कश्मीरी पण्डित घाटी में जल्द लौट पाएँगे?
काक : वे कश्मीरी पण्डित जो कश्मीर लौटने की बात चिल्ला–चिल्ला कर करते हैं, वे 1990 और 91 में बच्चे थे। आज हिन्दुस्तान के अलग–अलग हिस्सों में स्थायी तौर पर काम करते हैं। वे अपनी नौकरियाँ छोड़ कर यहाँ क्यों आएँगे? उनके नारों में विश्वास करना गलत होगा। नारे हकीकत से अलग होते हैं। ये लोग कहते हैं कि वे घाटी लौट कर आना चाहते हैं। उनके दादा यहाँ नौकरियाँ करते थे। उनके दादा अब नहीं रहे। उनके पिता कश्मीर के बाहर नौकरियाँ करते हैं। भारतीय राज्य ने कश्मीरी पण्डितों के लिए घाटियों में पर्याप्त नौकरियों का निर्माण नहीं किया है। जीविका के साधन और रहने की जगह कश्मीरी पण्डितों के लौटने से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है।
एजाज : आपको कश्मीर का भविष्य कैसा दिखाई देता है?
काक : मुझे लगता है कश्मीर में लम्बे समय तक अस्थिरता का माहौल बना रहेगा चाहे वह हिंसक रूप में प्रकट हो या अहिंसक रूप में। सरकार के पास कोई समाधान भी नहीं है। सरकार एक ऐसे लड़के की तरह है जो 17वें माले से कूद गया है और गिरते हुए चीख रहा है कि “मजा आ रहा है।” कश्मीरी शायद सोच रहे होंगे कि अब तक सरकार उन्हें थका रही थी अब वे सरकार को थका देंगे। यह कोई नहीं बता सकता कि अगले छह महीनों और एक साल के बीच क्या होने वाला है।
(कारवाँ से साभार)
 

  • 13 May, 2020 07:54 PM

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