जून 2021, अंक 38 में प्रकाशित

कश्मीर : यहाँ लाशों की तस्वीर लेना मना है

7 अप्रैल को जम्मू कश्मीर पुलिस ने एक निर्देश जारी कर पत्रकारों पर सेना की मुठभेड़ वाली जगह के नजदीक आने और उसका प्रसारण करने पर रोक लगा दी।

कश्मीर के आईजीपी विजय कुमार ने कहा है कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि हिंसा को फैलने से रोका जा सके क्योंकि ऐसी रिपोर्टिंग से देश विरोधी भावना भड़कती है और सैन्य बलों की गोपनीयता भंग होती है।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इण्डिया (ईजीआई) ने 17 अप्रैल को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इस निर्देश की कड़ी निन्दा की और इसे लोकतंत्र विरोधी कदम बताते हुए तुरन्त वापस लेने की माँग की है। गिल्ड ने कहा है कि शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर लिया गया पुलिस का यह फैसला अप्रत्यक्ष रूप से सुरक्षा बलों की गलत कार्रवाइयाँ छुपाने का एक तरीका है। संघर्ष वाले क्षेत्रों से लाइव रिपोर्टिंग करना, जिसमें सुरक्षाबलों और आतंकियों के बीच एनकाउंटर भी शामिल है, किसी भी जिम्मेदार मीडिया का एक बेहद महत्त्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने यह भी कहा कि सुरक्षा बलों की योजना की गोपनीयता बनाये रखने के लिए केवल कुछ दिशानिर्देश जारी किये जा सकते हैं। वैश्विक स्तर पर जिम्मेदार सरकारों ने ऐसे नियम बनाये हैं लेकिन पत्रकारों की रिपोर्टिंग पर रोक लगाना उचित नहीं है।

कश्मीर के मीडिया निकायों ने भी इस आदेश पर तीखी प्रतिक्रिया की है। कश्मीरी पत्रकार इस आदेश के खिलाफ एकजुट होकर इसे वापस लेने की माँग कर रहे हैं। घाटी में 12 मीडिया निकायों ने एक संयुक्त बयान जारी कर कहा कि पत्रकारों ने विषम परिस्थितियों में काम करके साहसी और इमानदार पत्रकारिता को आगे बढ़ाया है। यह निर्देश ऑन द स्पॉट रिपोर्टिंग को रोकने की एक चालाकी भरी रणनीति है जो पुलिस की आधिकारिक नीति का हिस्सा नहीं हो सकती। पत्रकार निकायों ने दावा किया है कि यह अधिकारियों द्वारा कश्मीर में प्रेस की स्वतंत्रता को खत्म करने के लिए उठाया गया कदम है।

पत्रकार निकायों का यह दावा बेबुनियाद नहीं है। सीधे प्रसारण से सुरक्षाबलों को यह परेशानी हो सकती है कि मुठभेड़ के दौरान वे कानून के दायरे के बाहर जाकर जो कृत्य करते हैं वे सबके सामने आ जायेंगे या मुठभेड़ के नाम पर जो हत्याएँ होती हैं उनके बारे में लोगों को पता चल जायेगा। पिछले दिनों सुरक्षाबलों द्वारा आतंकवादी कहकर तीन नागरिकों की हत्या करने और उनके शव को 100 किलोमीटर दूर ले जाकर गड्ढे में दबा देने के मामले ने खूब तूल पकड़ा था और सुरक्षाबलों की भारी बदनामी हुई थी तथा उनके खिलाफ हत्या का मामला दर्ज हुआ था। ऐसी परेशानियों से बचने के लिए ही शायद पुलिस और सैन्य बलों को इस कानूनी आड़ की जरूरत थी।

कश्मीर के पुलिस प्रमुख का यह तर्क कि इस दिशानिर्देश से हिंसा को बढ़ने से रोकने में मदद मिलेगी, सरासर गलत है। इससे केवल सुरक्षाबलों को बेलगाम हिंसा करने की छूट मिलेगी। जिस देश का सर्वाेच्च न्यायालय सुरक्षाबलों को सुसंगठित वर्दीधारी गिरोह कह चुका हो, कश्मीर जैसे क्षेत्र में उनके ऊपर मीडिया की निगरानी को भी नियंत्रित कर देने का परिणाम नागरिकों के लिए कितना भयावह हो सकता है इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। कश्मीर के बारे में कुछ बहुत प्रचलित तथ्य हैं जिनसे मोटा–मोटी ही सही लेकिन सुरक्षाबलों की कुछ कारगुजारिओं का अन्दाजा लग जाता है। कश्मीर में तकरीबन दस हजार ऐसी अर्ध–विधवाएँ हैं जिनके पति सालों से गुम हैं, सरकार न उनके मरने की गारन्टी कर सकती है न जिन्दा होने की। सरकारी दफ्तरों, पुलिस थानों और सैन्य बलों की छावनियों के चक्कर काटते–काटते हजारों अर्ध–विधवाओं की जवानी बुढ़ापे में तब्दील हो चुकी है। इसी के साथ–साथ कश्मीर में हजारों बेनामी कब्र हैं, इनके अन्दर दफ्न लोगों के बारे में भी किसी को कोई जानकारी नहीं। लम्बे समय से मानवाधिकार आयोग सैंकड़ांे मुठभेड़ों की जाँच की माँग कर रहा है लेकिन सत्ता के कानों पर जूँ नहीं रेंगती।

यहाँ हमारा मकसद कश्मीर के हालात पर चर्चा करना या कश्मीरियों के अन्तहीन दुखों का बयान करना नहीं है। हम लोकतान्त्रिक अधिकारों की भी बात नहीं कर रहे हैं, कश्मीरियों ने तो उसका सपना भी देखना कब का छोड़ दिया, अब तो बात तानाशाही से भी आगे बढ़ चुकी है, अप्रैल 2020 के बाद से तो पुलिस ने मुठभेड़ में मरने वालों की लाशें भी उनके परिजनों को सौंपना बन्द कर दिया है। मामला इस हद तक नीचे गिर चुका है कि पत्रकारों यानी लोकतंत्र के चैथे खम्भे से पुलिस ने यह हक भी छीन लिया है कि वह कुछ मुठभेड़ों के और उनमें मरनेवालों के फोटो ही खींच ले।

उम्मीद जगाने वाली बात भी यही है कि इतनी विराट सत्ता से संघर्ष में सैंकड़ों बार हार जाने, सैंकड़ों बार टूट कर बिखर जाने के बाद भी इनसाफ पसन्द पत्रकार और कश्मीर की जुझारू जनता ने अब तक भी घुटने नहीं टेके हैं, वे अब भी लड़ रहे हैं और आखिरी साँस तक लड़ेंगे।

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