जनवरी 2021, अंक 37 में प्रकाशित

कृषि कानून के चाहे–अनचाहे दुष्परिणाम

 

–– अमित भादुड़ी

प्लासी की निर्णायक लड़ाई जिसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपना पैर जमाया और अपनी कम्पनी के शासन को स्थापित किया, उसमें हमारी हार युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि एक सेनापति के विश्वासघात के कारण हुई थी। एक अफ्रीकी कहावत ऐसी ही मनोवृति की चेतावनी देती है, “शेर की अगुआई में भेड़ों की एक सेना भेड़ की अगुआई वाली शेरों की सेना को हरा सकती है।” इस कहावत के पीछे का सच व्यापक है और यह न केवल युद्ध के मैदान पर, बल्कि कई आधुनिक सरकारों और लोकतांत्रिक नेताओं के ऊपर भी खरी उतरती है। एक गलत नेता, एक जहरीली विचारधारा, मूर्खतापूर्ण महत्त्वाकांक्षा या आनबान की झूठी भावना, ऐसा कहर ढा सकती है, जिससे बहुत ही कम समय में अकल्पनीय क्षति हो सकती है। और फिर, देश को उस नुकसान से उबरने में एक लम्बा समय लग सकता है।

इतिहास में उदाहरण भरे पड़े हैं। हिटलर और मुसोलिनी अभी भी स्मृति में बहुत दूर नहीं हैं। स्टालिन की लाल सेना ने नाजियों को हराया था, लेकिन साथ ही साथ शुद्धिकरण की उनकी नीति ने पूर्वी यूरोप की स्वतंत्र कम्युनिस्ट पार्टियों को कमजोर बना दिया। अब इस बात के दस्तावेजी प्रमाण मौजूद हैं कि आईएमएफ द्वारा प्रवर्तित और इसके कट्टर बाजारपंथी नेताओं द्वारा स्वीकृत जहरीली नीतियों ने विशाल प्राकृतिक संसाधनों वाले देश अर्जेण्टीना को दुनियाभर में भीख माँगनेवाला बना दिया। जहरीली विचारधारा के साथ झूठी भावना का मेल हो जाये तो यह किसी भी देश में विपत्ति लाने का अचूक नुस्खा बन जाता है। विकास की ऋणात्मक दर और अभूतपूर्व मन्दी, बढ़ते शेयर बाजार के साथ–साथ बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की मौजूदगी के साथ गौ हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने और एक नेता के ऐतिहासिक महत्त्व के दिखावे के लिए एक केन्द्रीय विस्टा के निर्माण जैसी वैचारिक प्राथमिकताओं के साथ इस तरह मिला दिया जाना ऐसी ही विपत्ति की भविष्यवाणी कर रहा है। हालाँकि हम इस तथ्य के प्रति तभी जाग पाये जब राक्षस दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, जब इस देश के किसानों ने देश को आईना दिखा दिया।

यदि आपने अपनी सारी बुद्धिमत्ता पहले से ही विशेषज्ञों की चर्चाओं और मुख्यधारा की मीडिया की छवियों के आगे समर्पित नहीं की है, तो आप परी कथा की तरह पूछ सकते हैं–– “ आईना, दीवार पर लटके आईना, मुझे दिखाओ कि इन सब के पीछे कौन है।” और आईना सत्ताधारी पार्टी के दो सबसे शक्तिशाली नेताओं (दोनों गुजरात से) को ही नहीं, बल्कि दो अन्य चेहरों को, देश के दो सबसे अमीर व्यापारियों (ये दोनों भी गुजरात से) को भी दिखायेगा। अनुमान लगाने के लिए कोई पुरस्कार नहीं कि वे कौन हैं। दोनों का तभी से वर्तमान नेता के साथ पुराना याराना रहा है, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

हालाँकि, यह केवल याराना पूँजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का मामला नहीं है, जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं। हाल ही में एक मृतप्राय संसद के अन्दर बेहद जल्दबाजी में तीन कृषि कानूनों को पारित किया जाना कोई अपवाद नहीं, बल्कि पहले से निर्धारित प्रवृत्ति के अनुरूप है। सरकार ने बार–बार ऐसा किया है, लेकिन इस प्रवृत्ति की शुरुआत जनता को तैयारी का कोई मौका दिए बगैर किसी बमबारी की तरह हुई थी। पहले यह विमुद्रीकरण के गुरिल्ला हमले से शुरू हुई और फिर, जीएसटी के रणनीतिक रूप से खराब क्रियान्वयन से हुई, जिसने छोटे और निर्बल व्यवसायियों और हमारे संघीय वित्तीय ढाँचे में राज्यों को कमजोर कर दिया। इसके बाद यही काम उन प्रवासी कामगारों के साथ किया गया, जब 4 घण्टे के नोटिस पर बेहद सख्ती से तालाबन्दी लागू करके उनकी जिन्दगी और आजीविका को निर्ममतापूर्वक जड़ से उखाड़ दिया गया था। बेचैनी, बदहाली और मुसीबत टूट पड़ी थी, लेकिन जनता की प्रतिक्रिया अभी भी ऐसी नहीं थी, जैसे उन पर अत्याचार हुआ हो। यह भ्रम कि सरकार काले धन के खिलाफ लड़ेगी (15 लाख रुपये के वादे को तो भूल ही जाओ) और आसन्न महामारी के नाम पर भयानक तालाबन्दी लगाये जाने के बावजूद अभी भी सीधी–सादी जनता में कुछ विश्वसनीयता बची हुई थी। तब हम सब यह जानने से नहीं बच पाये कि महामारी की आड़ में किस तरह संसदीय लोकतंत्र के भीतर से ही उसके सारतत्व को कैसे खोखला किया जा रहा था। श्रम–विरोधी और कॉर्पाेरेट–हितैषी श्रम कानूनों की एक Üाृंखला को दरअसल बिना किसी पूर्व सूचना और विचार–विमर्श के पारित कर दिया गया था। और अब सरकार ने तीन कृषि कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने की एक सोची–समझी चाल चली। उसे संसद के अन्दर या बाहर किसी प्रतिरोध का भी कोई डर नहीं था, क्योंकि महामारी के आवरण तथा ऋणात्मक विकास और जानलेवा बेरोजगारी वाली एक ध्वस्त अर्थव्यवस्था में अधिकांश लोग पस्ती के शिकार थे और प्राणवायु के लिए हाँफ रहे थे।

बहुत संक्षेप में, इन तीनों कानूनों का मकसद मण्डी प्रणाली और कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त करना है। और, यह एक सामान्य हित की बात है जिसको मुख्यधारा का मीडिया अक्सर बहुत कम महत्त्व देता है, वह यह कि इन कानूनों का मकसद सरकार को एकपक्षीय शक्ति देकर विवाद के किसी भी मामले में सभी सामान्य कानूनी प्रक्रियाओं को लगभग खत्म कर देना है। यह विवादों को निपटाने की शक्ति कार्यपालिका को हस्तान्तरित करेगा जिसमें न्यायपालिका की कोई भूमिका नहीं होगी। कानून में हितों के सम्भावित टकराव की सभी धारणाओं का उल्लंघन करते हुए, कथित अपराधी ही अपराध की प्रकृति का निर्णय करेगा। इस तरह का कानून हमारी लोकतांत्रिक संसद द्वारा जल्दबाजी में पारित किया गया, जिसमें न केवल किसानों के अधिकारों को खत्म किया गया, बल्कि सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों के लिए भयावह है।

किसान इसके खिलाफ उठ खड़े हुए। वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए और अब यह सभी भारतीय नागरिकों के व्यापक संवैधानिक अधिकारों के साथ भी जुड़ गया है। भारत का पस्तहिम्मत गरीब तबका अचानक उस गम्भीर खतरे से अवगत हो गया है, जो उनकी आँखों में घूर रहा है। कृषि का कॉर्पाेरेटीकरण भारतीय लोकतंत्र के, हमारे संवैधानिक अधिकारों के कॉर्पाेरेटीकरण की एक पूर्वपीठिका है।

व्यवस्था पोषित अर्थशास्त्रियों को उनके विशेषज्ञ ज्ञान के चलते नहीं, बल्कि उनके शब्दजाल में निहित अप्रासंगिक अर्धसत्य के लिए जाना जाता है। मिल्टन फ्रीडमैन द्वारा प्रचारित, उनके तर्क की आधारशिला यह है कि, एक मुक्त लोकतंत्र को एक मुक्त बाजार की आवश्यकता होती है। कृषि कानूनों ने यह सवाल सामने ला दिया है–– क्या यह एक लोकतंत्र है जहाँ कार्यपालक ही न्यायाधीश भी है। क्या यह एक मुक्त लोकतंत्र की नयी परिभाषा है ? और फिर, वह बाजार मुक्त कैसे है, जहाँ मोलभाव करनेवाले किसी छोटे या सीमान्त किसान का सामना अम्बानी या अडानी महाशय से होता हो ? यह मानक आर्थिक सिद्धान्त का एक बुरी तरह तैयार किया गया गुप्त रहस्य है जिसमें कीमत तंत्र तब तक काम नहीं करता है जब तक कि बाजार में सभी खरीदार और विक्रेता प्रचलित मूल्य को स्वीकारने वाले न हों। इसका मतलब है कि कीमतें तय करने वाली बाजार की ताकत किसी के पास नहीं है। उच्च शक्ति वाले सामान्य सन्तुलन सिद्धान्त को वोल्तेयर के भगवान की तरह किसी बेपरवाह ‘नीलामकर्ता’ का आविष्कार करना पड़ेगा, जो बाजार खाली करनेवाली कीमतों पर माल खरीने के लिए कीमतों को निर्धारित और संशोधित कर सके। अपनी तमाम खामियों और भ्रष्टाचारों के बावजूद, न्यूनतम समर्थन मूल्य ही हमारे लिए किसी ‘नीलामीकर्ता’ द्वारा निर्धारित सबसे करीबी कीमत है। किसान चाहते हैं कि इसे एक कानून के रूप में सुनिश्चित किया जायेय सरकार ऐसा नहीं करना चाहती है क्योंकि वह चाहती है कि जितनी जल्दी हो सके बड़े निजी व्यापारियों को फसल का भाव तय करने का सुअवसर मिले, क्योंकि नये कृषि कानूनों के रहते, चाहे इनमें कोई संशोधन हो या न हो, मौजूदा मण्डी प्रणाली का तबाह होना तय ही है। यही वह मुक्त बाजार तंत्र है जिसका मुख्यधारा के अर्थशास्त्री गुणगान करते हैं, जिसके ऊपर मुख्यधारा के मीडिया में तथाकथित विशेषज्ञों की बहस करायी जाती है जिसको बड़े पूँजीपति वित्तपोषित करते हैं। और इसी बीच, अम्बानी महाशय की रिलायंस कम्पनी ने कृषि उत्पादों के खुदरा बाजार पर अपना निशाना साधा है और जियो सभी कॉर्पाेरेट ऑन–लाइन थोक खरीद को नियंत्रित करेगी, जबकि अडानी महाशय कृषि उपज के भण्डारण के लिए कॉर्पाेरेट परिवहन और साइलो के अपने नेटवर्क का विस्तार करने में व्यस्त हैं। सरकार 5–जी के सहारे डिजीटल पूँजीवाद के भविष्य को लेकर बेहद उत्साहित है, जिसे भारत में जियो द्वारा नियंत्रित किया जाएगा। क्या कोई राहत, कोई वैकल्पिक मार्ग सम्भव है ?

किसान हमें दिखा रहे हैं कि निराशावाद में फँसे हम सभी लोग कितने गलत थे। चीजें बदलती रहती हैं, लेकिन हमेशा उसी तरह से नहीं, जैसा मुट्ठीभर धनिकतंत्री सत्ताधारी और उनके चाटुकार चाहते हैं। अगर अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आम लोग एकजुट हो जाते हैं और विपक्षी राजनीतिक दलों को कम से कम इस मुद्दे पर एकजुट होने के लिए मजबूर कर देते हैं, जिनके पास न तो स्पष्ट रूप से गरीब समर्थक विकास का कोई रोड मैप होता है और न ही उनमें इतना साहस होता है कि वे इस यंत्रीकृत कॉर्पाेरेट खेती को सोने की खान बतानेवालों की झाँसापट्टी का विरोध कर सकें। किसानों के दृढसंकल्प प्रतिरोध ने अनिवार्य परिस्थितियों का निर्माण किया है। हम सभी को साहसपूर्वक इसमें शामिल होना है। यह इस कथन में निहित इस बुद्धिमत्ता की याद दिलाता है–– “आदमी (और औरतें) इतिहास बनाते हैं, लेकिन खुद अपनी बनायी परिस्थितियों में नहीं (प्लेखानोव)।” परिस्थितियाँ निर्मित हो गयी हैं। अफ्रीकी कहावत का शेर अभी भी भेड़ की उस सेना की अगुआई करता रह सकता है जो कभी एक अजेय दुश्मन की तरह दिखाई देता था।

(अमित भादुड़ी जानेमाने अर्थशास्त्री हैं, जो वर्तमान में पाविया विश्वविद्यालय, इटली में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चयनित प्रोफेसर हैं और काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेण्ट, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर हैं। फ्रन्टियर वीकली से साभार, अनुवाद –– दिगम्बर।)

 
 

 

 

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