अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

महिलाओं के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश

26 जून 2018 को ‘द थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन’ द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश बताया गया है। इसमें महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 550 महिला विशेषज्ञों की राय ली गयी और उन्हें संयुक्त राष्ट्र के कुल 193 सदस्य देशों में से महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित दस देशों के नाम बताने को कहा गया। थॉमसन रॉयटर्स की रिपोर्ट में जारी सूची के अनुसार सबसे असुरक्षित देशों में भारत पहले स्थान पर, अफगानिस्तान और युद्धग्रस्त सीरिया क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर तथा सोमालिया और सऊदी अरब जैसे देश चैथे और पाँचवें स्थान पर हैं। इस सूची में पाकिस्तान छठे नम्बर पर और अमरीका दसवें नम्बर पर है। यहाँ यह बताना भी आवश्यक होगा कि इससे पहले 2011 में कराये गये इसी तरह के सर्वेक्षण में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों में क्रमश: अफगानिस्तान, कांगो, पाकिस्तान, भारत और सोमालिया थे। यानी पिछले सात सालों में भारत महिलाओं के लिए असुरक्षित देशों की सूची में चैथे से पहले पायदान पर पहुँच चुका है।

केन्द्र सरकार व अन्य पार्टियों के अधिकतर नेताओं ने इस रिपोर्ट पर चुप्पी साध ली है। महिला व बाल विकास मंत्रालय ने तो यह कहकर इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है कि यह रिपोर्ट सिर्फ और सिर्फ धारणा पर आधारित है। सरकार ने तो यहाँ तक कहा कि अब महिला सम्बन्धी ज्यादातर मामले दर्ज किये जा रहे हैं। इसलिए यह समस्या बढ़ी हुई लग रही है।

अगर पूरी रिपोर्ट पर गौर किया जाये तो पता चलेगा कि यह रिपोर्ट न तो किसी धारणा के आधार पर और न ही दर्ज किये गये आँकड़ों के आधार पर बनायी गयी है, बल्कि यह विश्व के 550 चुनिन्दा महिला विशेषज्ञों की राय के आधार पर बनायी गयी है। इन विशेषज्ञों में नीति निर्माता, सामाजिक टिप्पणीकार, गैर–सरकारी संगठनों के विशेषज्ञ, पत्रकार, स्वास्थ्य सेवा विशेषज्ञ, शिक्षाविद और मददगार संस्थानों के प्रतिनिधि शामिल थे जिन्होनें महिलाओं से सम्बन्धित 6 विषयों– स्वास्थ्य, भेदभाव, सांस्कृतिक परम्पराओं, यौन हिंसा, गैर–यौन हिंसा और घरेलू काम, जबरन शादी या जबरन मजदूरी के लिए मानव–तस्करी जैसे मुद्दों को केन्द्र में रखते हुए यह रिपोर्ट तैयार की है।

भारत जैसा देश जहाँ आज भी सबसे अधिक महिलाएँ कुपोषण का शिकार हों, जहाँ लड़के और लड़कियों के बीच भेदभाव संस्कृति में ही रचा–बसा हो, जहाँ प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख लड़कियाँ भ्रूण–हत्या और उपेक्षा के कारण मर जाती हों, जहाँ लड़कियों पर हमले, छेड़खानी और बलात्कार जैसे मामले आम हों, वहाँ भारत के बारे में इस तरह की रिपोर्ट आना कोई अचम्भे की बात नहीं है। जहाँ सरकार को इस तरह की रिपोर्ट पर चिन्ता प्रकट करनी चाहिए, वहाँ वह तरह–तरह से अपने बचाव में लगी हुई है। इस सर्वे को खारिज करते हुए महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा का कहना है कि “भारत में महिलाएँ मुद्दों को लेकर अवगत हैं, ऐसा हो ही नहीं सकता कि किसी सर्वेक्षण में भारत को पहले स्थान पर रखा जाये। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट में जिन देशों को भारत के बाद स्थान दिया गया है, वहाँ महिलाओं को सार्वजानिक तौर पर बोलने तक की इजाजत नहीं है”। इस रिपोर्ट पर सरकार का इस तरह का रवैया देखकर साफ पता चलता है कि महिलाओं की सुरक्षा और बराबरी जैसे मुद्दों से सरकार को कोई लेना–देना नहीं, बस वह वाहीयात बयानों तक ही इसको सीमित रखना चाहती है। असलियत में इन समस्याओं से सरकार का कोई सरोकार नहीं है।

सरकारी आँकड़ों के ही अनुसार वर्ष 2007 से 2016 के बीच महिलाओं पर होने वाले अपराध में 83 फीसदी की वृद्धि हुई है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार यहाँ रोजाना 1000 से भी अधिक यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज होते हैं। हर एक घण्टे में औसतन 4 बलात्कार के मामले सामने आते हैं। ऐसे में महिलाओं की स्थिति को उजागर करने के लिए किसी रिपोर्ट की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसके बावजूद सरकार व महिला आयोग इन सच्चाईयों पर पर्दा डालने की कोशिशों में जुटे हैं। कुछ ही दिन पहले उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह ने बयान दिया कि “बलात्कार समाज का स्वाभाविक प्रदूषण है, भगवान राम भी आ जायें तो भी इन घटनाओं पर नियंत्रण पाना सम्भव नहीं है”। भाजपा की ही सांसद किरण खेर के अनुसार, “बलात्कार तो सदियों से हो रहा है, ये संस्कृति का हिस्सा है, हम इसे रोक नहीं सकते।” निर्लज्जता की सीमा लाँघ चुके इन बयानों से जाहिर है कि सरकार महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कितना सतर्क है। उल्टे, ये जनप्रतिनिधि अपने बयानों से समाज में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों को सह दे रहे हैं। ऐसी सरकार से क्या उम्मीद की जा सकती है जिसने अभी तक भी खाप–पंचायतों को गैर–कानूनी करार नहीं दिया है जो अपनी पसन्द से विवाह करने के अधिकार के खिलाफ निर्णय देती रही हैं। यहाँ तक कि कठुआ में आठ साल की बच्ची आसिफा के साथ बलात्कार करने वालों के पक्ष में इस पार्टी के मंत्रियों ने तिरंगा जुलूस निकाला था और उन्नाव बलात्कार के मामले में इस पार्टी की सरकार ने बलात्कारियों को संरक्षण तक दिया, ये बात अब किसी से छिपी नहीं है।

थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की मुखिया मोनीक विला ने इंडिया स्पेंड को बताया कि “जहाँ दुनिया भर में 20 फीसदी महिलाओं के नाम पर अपनी जमीन है वहीं भारत में 10 फीसदी महिलाएँ जमीन की मालिक हैं। महिला हत्या दर के मामले में भारत दुनिया भर में सबसे ऊपर है। पुरुषों की संख्या यहाँ महिलाओं से 3 करोड़ 70 लाख ज्यादा है। 27 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले ही कर दी जाती है। ये सब तथ्य इस मामले में भारत को दुनिया में सबसे आगे खड़ा करते हैं”। 2014 के आँकड़ों की ही बात की जाये तो भारतीय श्रम बल में 15 से 64 साल की आयु वर्ग की केवल 28.6 फीसदी महिलाओं की भागीदारी है जो बांग्लादेश (60.6 फीसदी) और नेपाल (83.1फीसदी) जैसे अति पिछड़े देशों से भी बहुत कम है। दिसम्बर 2017 की इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में बताया गया कि 2016 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के प्रति घंटे औसतन 39 मामले दर्ज हुए, जबकि 2007 में यह सँख्या 21 थी।

अब अगर हम हाल ही की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो तस्वीर और साफ होती नजर आएगी। 21 जुलाई को मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में एक लड़की को उसी के परिवार द्वारा दूसरी जाति के लड़के से प्रेम विवाह के मामले में जिन्दा जला दिया गया। अखबारों में आये दिन ऐसी दिल दहला देने वाली खबरें आती रहती हैं। इस तरह के उदाहरण हमारी समाज व्यवस्था की सच्चाई को सामने लाकर रख देते हैं जिसके अनुसार महिलाओं को अपने जीवन से सम्बन्धित फैसले लेने के अधिकार भी नहीं दिये गये हैं।

22 जुलाई को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में एक युवती के साथ पहले एक युवक ने बलात्कार किया, फिर उसके गर्भवती हो जाने के बाद जबरन उसका गर्भपात करवाया और जब वह युवती इस घटना की रिपोर्ट दर्ज कराने अपने पाँच  महीने के भ्रूण को थैले में लेकर जिले के हसन कोतवाली में पहुँची तो वहाँ के कोतवाल डीके शर्मा ने उल्टा उस युवती पर ही आरोप लगाया और यह बयान दिया कि लड़का और लड़की के पहले से सम्बन्ध थे जिसके कारण वह गर्भवती हुई और जब शादी के लिए लड़के पर दबाव बनाने लगी तो उससे बचने के लिए, लड़के को लड़की का गर्भपात करवाना पड़ा। 13 जुलाई को उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में एक पुलिसकर्मी सहित 6 लोगों द्वारा एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म का मामला सामने आया। 1 जुलाई को उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में चैदह साल की मासूम बच्ची के साथ दो महीने तक सामूहिक बलात्कार किया गया और इस मामले में पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गयी। हमारा पुलिस प्रशासन व न्याय व्यवस्था महिला के साथ कोई घटना हो जाने पर उसके प्रति क्या रुख अपनाती है, इन घटनाओं  से साफ जाहिर है।

14 जुलाई को जम्मू–कश्मीर के आरएस पुरा भाजपा के विधायक गगन भगत पर उनकी पत्नी मोनिका ने धोखा देने और एक कॉलेज स्टूडेंट के साथ अवैध सम्बन्ध रखने का आरोप लगाया और साथ ही इसी कॉलेज स्टूडेंट के पिता ने विधायक पर अपनी बेटी के अपहरण का आरोप लगाया। जब हमारे देश के नेताओं और पुलिस प्रशासन का ही चरित्र ऐसा है तो हम सोच सकते हैं कि हमारे समाज में पितृसत्तात्मक सोच किस तरह से अपनी पैठ जमाये हुए है। नेता, पुलिस, सांसद, विधायक सभी इसी समाज व्यवस्था का हिस्सा हैं, इसलिए जब तक इस सोच को जड़ से खत्म नहीं किया जायेगा तब तक इस तरह की घटनाओं को रोक पाना बहुत मुश्किल होगा।

उत्तराखंड के शहर मसूरी के एक बोर्डिंग स्कूल, मसूरी इंटरनेशनल में रैगिंग के नाम पर सीनियर्स ने चार छात्राओं का बलात्कार किया। बिहार के मुजफ्फरपुर की घटना तो दिल दहला देने वाली है। मुजफ्फरपुर का एक बालिका गृह जिसको सरकार द्वारा पैसा दिया जाता है और एक एनजीओ द्वारा चलाया जाता है, उसमें रहने वाली 42 बच्चियों में से 37 के साथ बलात्कार और लगातार यौन शोषण होता रहा। ये बात अन्दर ही दफन रह जाती अगर टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज द्वारा 15 मार्च 2018 को किये गये ऑडिट में इस बात का खुलासा नहीं हुआ होता। ऑडिट की रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 2013 से 2018 के बीच यहाँ से 6 लड़कियाँ गायब हुई हैं। यहाँ तक कि वहाँ रहने वाली लड़कियों में से कुछ लड़कियों के गर्भवती होने की भी खबर है। इस शोषण का विरोध करने वाली एक बच्ची को पीट–पीट कर उसी बालिका गृह के प्रांगण में दफना दिया गया। इस बालिका गृह में रहने वाली लड़कियों की उम्र 7 से 15 साल के बीच है। इस पूरे मामले में जो लोग जिम्मेदार रहे वे और कोई नहीं बल्कि उस बालिका गृह के संरक्षक ही थे, जिन्हें सत्ता में बैठे लोगों का संरक्षण प्राप्त था। जाँच–पड़ताल के बाद, मुजफ्फरपुर के अलावा मुंगेर, भागलपुर और मोतिहारी सहित कई बालिका गृहों में भी यही कहानी दोहराये जाने की बात सामने आयी है।

हाल ही में 19 जून की एक खबर के अनुसार झारखण्ड में मानव तस्करी के खिलाफ अभियान चलाने वाली एक गैर सरकारी संस्था से जुड़ी पाँच लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। झारखण्ड के खूँटी जिले के अडकी क्षेत्र में जब इनकी टीम मानव तस्करी के खिलाफ नुक्कड़ नाटक करने पहुँची तो 5–6 लोगों ने बन्दूक के दम पर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया। हरियाणा के पंचकुला जिले के मोरनी हिल्स गेस्ट हाउस में 22 वर्षीय महिला से चार दिनों तक 40 लोगों ने बलात्कार किया। बलात्कारियों में 55 साल का एक बुजुर्ग व्यक्ति तक शामिल था। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं के साथ बर्बरता की घटनाएँ किस हद तक बढ़ चुकी हैं।

इस तरह की घटनाएँ रूह कंपा देने वाली हैं। पर अब सोचने वाली बात यह है कि इस तरह की घटनाएँ समाज में घटित न हों, और महिलाओं के लिए एक सुरक्षित समाज बन सके। इसके लिए आखिर क्या किया जाए? केवल सरकार और पुलिस प्रशासन द्वारा बनाये गये कानूनों और नियमों के भरोसे कुछ नहीं हो पायेगा। जो लोग खुद ही घटनाओं में लिप्त हैं उन्हें अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी देने का हश्र क्या होगा, ये ऊपर दी गयी घटनाओं के माध्यम से स्वत: स्पष्ट है। बलात्कार, यौन हिंसा औरतों के साथ गैर–बराबरी की जड़ें हमारी समाज व्यवस्था से जुड़ी हैं जो मर्द को श्रेष्ठ और औरत को कमतर करके देखती हैं। जहाँ आज भी औरत का काम घर की चारदीवारी में सिमटे रहना, पति की इच्छापूर्ति और वंश बढ़ाने जैसे कामों से अधिक कुछ भी नहीं है। महिलाओं को  निजी सम्पत्ति के नाम पर या तो खुद उन्हीं के द्वारा बचाये गये कुछ पैसे–जेवर बताकर या शादी के बाद पति की सम्पत्ति को ही उसकी सम्पत्ति बताकर उसको बहला–फुसला दिया जाता है। यहाँ तक कि नौकरी कर रही औरतों का भी अपनी आर्थिक कमाई पर अधिकार नहीं होता। इसके साथ–साथ बाजार और मीडिया द्वारा जो औरतों की छवि पेश की जाती है उससे बस यही जाहिर होती है कि औरत एक “सेक्स ऑब्जेक्ट” से बढ़कर और कुछ भी नहीं। आज बड़ी–बड़ी कम्पनियाँ अपने मुनाफे के लिए औरतों के प्रति विकृत सोच को इस्तेमाल कर रही हैं।  

जब हमारा पूँजीवादी समाज औरतों के लिए सामन्ती ढाँचे को ज्यों का त्यों बनाये हुए है, ऐसे में इस तरह की स्थिति होना तो लाजिमी ही है। आज स्त्री को आर्थिक रूप से आजाद होने के साथ–साथ अपने आपको सदियों पुरानी मानसिक गुलामी से भी आजाद करने की जरूरत है। आज वह समय नहीं जब केवल सरकार, पुलिस, न्याय व्यवस्था से इसके लिए गुहार लगायी जाये बल्कि इस समस्या को दूर करने के लिए सभी महिलाएँ अपने अधिकारों को जान–समझकर एकजुट हों और एक सामाजिक जन आन्दोलन के जरिये अपनी बराबरी और अधिकार की आवाज उठायें। तभी जाकर महिलाएँ इस समाज में रहकर बराबरी और सम्मान का सपना देख पाएँगी।

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