अक्टूबर 2019, अंक 33 में प्रकाशित

वे ईमान और न्याय क्या धर्म तक बेच देते हैं!

जिनके पास बेचने का अधिकार होता है, वे सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ बेच देते हैं। हवा बेच देते हैं, पानी बेच देते हैं, धरती बेच देते हैं, जंगल बेच देते हैं, नमी बेच देते हैं, धूप–छाँव बेच देते हैं, हड्डियाँ और राख तक बेच देते हैं। ईमान–धर्म और न्याय की तो बात ही क्या, शान्ति और युद्ध ही नहीं, युद्धविराम तक बेच देते हैं। वे चाहे, जो, जिसका भी हो, अपना समझकर बेच देते हैं। वे खुद बिके हुए होते हैं और उन्हें खरीदने वाले भी कई होते हैं।
एकमुश्त बिकने के बजाय वे किस्तों में बिकना पसन्द करते हैं। प्रॉफिट उनका मोटिव होता है, बेचना उनके खून में होता है तो किसी को वे अपना दिमाग, किसी को अपने कान, किसी को अपनी आँख, किसी को अपनी नाक, किसी को अपने हाथ, किसी को अपने पैर, किसी को अपना अमाशय तक बेच देते हैं। किसी को कुछ नहीं बेचते, उसका सबकुछ खरीद लेते हैं। खरीद क्या लेते हैं, छीन लेते हैं और फिर उसे बेच देते हैं, चाहे वह लोहे की फूटी तगाड़ी ही हो।
जिनके पास बेचने का अधिकार होता है, वे संविधान, नियम–कानून सब अच्छी तरह कम्पनी के उत्पाद की तरह बढ़िया पैकिंग करके बेच देते हैं। अपनी हरामखोरी और दूसरों का श्रम, उनका रोजगार, उनकी देह तक बेच देते हैं। खूब बेचने के लिए वे टीवी चैनलों का 20 सेकण्ड का समय खरीद लेते हैं, जिसमें हमारे समय का महानायक मुस्कुराता हुआ प्रकट होता है। इस तरह वे कूड़ा, गन्दगी, सड़ता हुआ पानी, बहता हुआ नाला और पेशाब की धार तक बेहद मुनाफे में बेच देते हैं। वे कमर बेच देते हैं, क्योंकि रीढ़ बेच चुके होते हैं।
जिनके पास बेचने का अधिकार होता है, वे हमारा एकान्त अपना मानकर बेच देते हैं, हमारे भीतर की आग हमें पता लगने से पहले ही बेच देते हैं। इसका पता हमें अपने अन्दर अचानक–अकारण पैदा हुए ठण्डेपन से तब लगता है, जब हम कांपना शुरू कर देते हैं। हमारे कागज, कलम, बनियान और जँघिया तो वे बेच ही देते हैं,अपना नंगापन भी हमारा नंगापन बताकर बेच देते हैं।
ये बेच देते हैं और जमा कर लेते हैं करोड़ों–अरबों–खरबों रुपये और अधिक कमाने की चिन्ता कमा लेते हैं, नींद बेच देते हैं, विचार बेच देते हैं। अरे साहब खरीददार हो तो क्या बताऊँ, शर्म आती है, बताने में, वे क्या–क्या नहीं बेच देते हैं। आप समझ जाओ, क्या–क्या नहीं से मेरा तात्पर्य क्या–क्या से है!
उन्हें वैसे खरीदना भी पसन्द है, लेकिन उन्हें वे खरीददार पसन्द नहीं, जो बाजार जाते हैं, तो एक–एक आलू, एक–एक टमाटर, एक–एक भिण्डी छाँटकर, तुलवाकर, भाव करके, दो पैसे बचाकर खरीदना पसन्द करते हैं। उन्हें वे थोक खरीददार पसन्द हैं, जो 360 करोड़ की चीज भले 22 करोड़ में खरीद लें मगर खरीद लें। वे जो खरीदना चाहें, बेच देते हैं।
और वे हर जगह बेच–खरीद लेते हैं, दुनिया और घर तक में ऐसा कोई कोना नहीं, जहाँ वे दुकान नहीं लगा सकते। वे हर मौसम में, हर हालत में, हर देश में, हर ग्रह–नक्षत्र में बेचना–खरीदना जानते हैं। उन्होंने आकाश बेच डाला तो तारों का क्या करते, वे तारे भी बेचने वाले होते हैं, मगर प्रदूषण के कारण धरती से तारे नहीं दिखते तो खरीदनेवाला इससे निराश होकर खरीदने से मना कर देता है। वे उसे एक रुपये की प्रतीकात्मक कीमत में बेचने का प्रस्ताव करते हैं।
यह राशि भी खरीदने वाले को ज्यादा लगती है तो वे 50 पैसे में बेचने का मन बना लेते हैं, मगर अन्तत: खरीददार, ‘तुम भी क्या याद करोगे’ की स्टाइल में कहता है कि चलो 50 पैसे के लिए क्या झिकझिक करना। वे जब एक रुपया दे देते हैं और ऐसा–वैसा नहीं एकदम कड़क नोट दे देते हैं, इतना कड़क कि जेब में मोड़कर रखने का भी मन नहीं करे तो वे इसे प्रभु का प्रसाद मानकर, सिर से छुआकर, देने वाले का आभार मानकर अपने पास बहुत ऐहतियात से रख लेते हैं।
उन्हें बेचने में उतना ही आनन्द आता है, जैसा कभी भजन गाने में आता था, आरती उतारने में आता था, गुरुजी के खड़ाऊ सिर पर रखने में आता था, तिलक लगाने में आता था और बलात्कार तथा दंगे करने–कराने में आता था। उन्हें बेचने में इतना आनन्द आता है और बेचने की ऐसी उतावली रहती है कि नींद आकर भी नहीं आती और नींद आती है तो खरीदार आ जाता है। वे खरीददार को उसकी आहट से नहीं, उसकी सुगंध, उसकी दुर्गंध और उसकी गंध से जान लेते हैं। कहना अच्छा नहीं लगता मगर इस मामले में वे––– के भी गुरू हैं।
इतना बेचा जा रहा है, इतना बेचा जा रहा है कि यह देखकर रघु रोने लगता है कि इस तरह तो उसकी रही–सही दुनिया भी उजड़ जायेगी तो उसकी माँ उसे चुप कराती है और जब वह चुप हो जाता है तो उसकी माँ रोने लग जाती है और रघु उसे चुप कराता है। उधर बहन भी रोती है, भाई भी, बेटा भी, बेटी भी। बीवी सबको चुपचाप कराते–कराते खुद रोने लग जाती है।
कुछ चुप हैं अभी, रो इसलिए नहीं रहे हैं कि कल जब सब रोते–रोते थक जाएँगे तो लड़ने की बात छोड़ दीजिए, रोने को भी कोई नहीं बचेगा। वे कल रोने के लिए आज नहीं रो रहे हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि ये आँखों से बरसने वाले आँसू हैं या बरसात है या दोनों है या कुछ नहीं है, आँखों का भ्रम है, जो अब कभी दूर नहीं होने वाला है।
(नवजीवन इंडिया से साभार)
 

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