सितम्बर 2020, अंक 36 में प्रकाशित

बुनियादी बदलाव के लिए जन–संघर्षों का दामन थामना होगा

भारतीय राजनीति आज एक संकट से गुजर रही है। संसद से सड़क तक भविष्य को लेकर एक बेचैनी मौजूद है। उदारवादी और संसदीय राजनीति के जरिये जनता में छोटे–मोटे सुधार की गुंजाइश खत्म होती जा रही है। संसदीय वामपंथ जाति आधारित मण्डल राजनीति, दलित राजनीति करने वाली बहुजन पार्टियाँ और वामपंथी संसदीय राजनीति हाशिये पर जा चुकी हैं। 2014 और 2019 के चुनावों ने संसदीय वामपंथ को मुख्यधारा की राजनीति से लगभग बेदखल कर दिया है। बंगाल में बीजेपी के राजनीतिक उभार के पीछे जमीनी स्तर पर “राम और वाम” कार्यकर्ताओं की एकता को रेखांकित किया गया है। वामपंथी राजनीतिज्ञों की स्वच्छ छवि और उनकी सादगी भी उनके किसी काम नहीं आ रही।

जाति आधारित ‘मण्डल’ राजनीति और बहुजन समाज की बात करने वाली आम्बेडकरवादी दलित राजनीति भी चुनाव के अखाड़े में चारों खाने चित्त पड़ी है। रिजर्वेशन एक ऐसा झुनझुना बनकर रह गया है जिससे खेलने के लिए दलितों और पिछड़ों में धड़ेबंदियाँ हो रही हैं और आरक्षण को लेकर अब सवर्ण जातियों में भी होड़ लगने लगी है। इसलिए बीजेपी और संघ रिजर्वेशन विरोध के पुराने टेप को बन्द कर चुके हैं और उन्होंने तीन ठोस कदम उठाकर इसका भरपूर फायदा उठाया है। पहला, तथाकथित गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणाय दूसरा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ओबीसी/बीसी के ‘रिजर्वेशन के भीतर रिजर्वेशन’ करने के लिए आयोग गठित करना या अध्यादेश जारी करके ऐसे जाति समूहों को चिन्हित करना। तीसरा, आर्थिक आधार पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातियों में आरक्षण का विभाजन और इनके आर्थिक रूप से कमजोर लोगों में अपने प्रति हमदर्दी पैदा करना।

संसदीय किसान राजनीति भी अब मुख्यधारा की राजनीति से बाहर हो चुकी है। पुराने किसान नेताओं, जैसे–– चरण सिंह की अपील हरियाणा से लेकर बिहार तक थी, जो उनके मरते–मरते ही क्षेत्रीय और जातिवादी राजनीति में पतित होकर बँट गयी और फिर बड़े दलों के साथ केन्द्रीय सत्ता में मंत्री पदों के लिए सहयोग करने लगी। इस की प्रमुख वजह थी–– किसानों के भीतर आये बदलाव। चरण सिंह के वक्त तक किसान मुख्यत: किसान का ही काम करते थे, वे जमीन्दारों, साहूकारों, आढ़तियों, पूँजीपतियों और सूदखोरों द्वारा सताये जाते थे जिनकी पार्टी कांग्रेस थी, इसलिए किसानों के हित में काम करने के लिए चरण सिंह को अपनी अलग पार्टी बनानी पड़ी।

किसान, सुधारवादी आन्दोलन और टेªड यूनियन इन सभी के लिए देश की राजनीति में जगह सिमटती जा रही है और उसकी जगह धुर दक्षिणपंथी राजनीति ले रही है। चरण सिंह और उनके समकालीन अन्य किसान नेताओं द्वारा किये गये सुधारों के कारण और हरित क्रान्ति के चलते किसानों में खुशहाली आयी और फिर उनका चरित्र बदलने लगा। उन्हीं में से कुछ के बेटे मास्टर, सब इंस्पेक्टर, डेरी मालिक, भट्ठे वाले, दुकानदार, देशी–विदेशी कम्पनियों के स्थानीय डीलर इत्यादि बने और बाद की पीढ़ी में प्रोफेसर, जज, आईएएस और आईपीएस जैसे पदों पर भी पहुँच गये।

कृषि अब उनका मुख्य पेशा नहीं रह गया। गाँव के खेत उन्होंने बटाई पर उठा दिये। कस्बों–शहरों में मकान बना लिये। खाते–पीते और मुखर होने के कारण यही लोग किसानों के अगुवा बने रहे लेकिन दरअसल अब वे ‘किसान’ नहीं रह गये। इसलिए इन्हें बीजेपी या कांग्रेस से अब कोई परेशानी नहीं है जैसी चरण सिंह के शुरुआती संघर्ष के दिनों में होती थी।

इस तरह संसदीय किसान राजनीति क्षेत्रीय और जातीय आधारों पर बँट चुकी है और किसान राजनीति का दावा करने वाले मुख्यत: ऊपर वर्णित गाँव–कस्बों में निवास करने वाले नवधनाढ्य वर्ग के प्रतिनिधि हैं–– इसलिए किसानों में अब उनकी कोई अपील नहीं रह गयी है।

ट्रेड यूनियनों का संघर्ष भी संकट का शिकार है। पहले कारखानों में मजदूर सीधे मालिकों के मातहत रहते थे इसलिए संघर्ष को संगठित करना उतना मुश्किल नहीं था। जितना आज ठेका–प्रथा के प्रचलन के बाद है। अब मजदूर ठेकेदार का आदमी है और एक बड़े काम के कई ठेकेदार बिचैलिये मिलकर पूरा करते हैं। ये लोग सामान्यत: कारखाने के आस–पास के गाँवों के लोग होते हैं। इन्हीं गाँवों से मजदूरों को काम पर लगाने के लिए जुटाते हैं और अकसर अपने फैक्ट्री मालिक का साथ देते हैं और उसके पक्ष में गाँव के लोगों को भी लामबन्द करते हैं, जैसा कि मेरठ–परतापुर इण्डस्ट्रियल एरिया की बड़ी हड़ताल को दबाने में आस–पास के गाँवों के दबंग लोगों और बदमाशों ने फैक्ट्री मालिकों का साथ दिया जिनके हित ठेकेदारी, दुकानदारी, ट्रांसपोर्ट, किराये पर मजदूरों को मकान देने इत्यादि के जरिये फैक्ट्री मालिकों से जुड़े हुए थे।

हर विभाग में नियमित कर्मचारियों की संख्या आज सीमित कर दी गयी है और उनकी जगह बड़ी संख्या अस्थायी, “मानदेय” पर काम करने वाले अतिथि या ठेका कामगारों को रख लिया गया है। नियमित कर्मचारियों और ठेका कर्मचारी के वेतन और कार्य दशा में भारी अन्तर होता है। ठेका कर्मियों से कम वेतन में अधिक काम कराया जाता है। इसलिए इनके बीच एकता बनाना एक बड़ी चुनौती है। सरकार या प्रबन्धक आज कर्मचारियों की हड़ताल तोड़ने के लिए एक खास रणनीति इस्तेमाल कर रहे हैं–– एक ओर अखबारों और मीडिया के जरिये नियमित कर्मचारियों की भारी–भरकम वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं का बखान किया जाता है तो दूसरी तरफ ठेका कर्मियों को नियमित करने का लालच देकर उनकी जगह काम पर बुला लिया जाता है। हरियाणा रोडवेज के निजीकरण के खिलाफ चल रही हड़ताल को तोड़ने के लिए यही तरीका अपनाया गया, जिसके परिणामस्वरूप ड्राइवर–कण्डक्टर बसें चलाने लगे। इसके चलते हड़ताल को आगे जारी रखना मुश्किल होता गया और उसे ससम्मान खत्म कर पाना भी टेªड–यूनियन के नेताओं के लिए भारी पड़ गया जबकि उन्हें हरियाणा के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन, ‘सर्व कर्मचारी संघ’, का समर्थन प्राप्त था।

इसके अलावा हिन्दू–मुसलमान, जात–बिरादरी इत्यादि पहचान की तेज होती राजनीति भी मजदूर संगठन के रास्ते का बहुत बड़ा रोड़ा बन चुकी है। ये हालात और चुनौतियाँ मजदूरों के संगठन के काम को पहले से ज्यादा दुश्वार बना चुके हैं, जिसके लिए पुराने ट्रेड यूनियन नेता सक्षम नहीं है। उनकी वामपंथी या दक्षिणपंथी पार्टियाँ निजीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण को स्वीकार कर चुकी हैं। इसलिए जमीन पर काम करने वाले मजदूर नेता निराश हो चुके हैं और दूसरे विकल्प की तलाश में हैं।

भारत की मुख्य श्रमिक आबादी असंगठित क्षेत्र में है, जैसे–– रिक्शा चालक, ठेला खींचने वाले, ट्रकों में सामान लादने वाले, ठेले–खोमचे वाले, लेबर चैराहों पर रोज आकर खड़े होने वाले मिस्त्री, पेण्टर इत्यादि। अलग–अलग काम करने के कारण इनका संगठन बनाना कहीं ज्यादा मेहनत की माँग करता है।

मौजूदा किसान संगठन गरीब और मध्यम किसान की समस्याओं से कोई हमदर्दी नहीं रखते हैं, न ही वे उनके हितों की राजनीति को महत्त्व देते हैं। उन्हें केवल धनी किसानों के हित में ही दिलचस्पी होती है। इसलिए किसान संगठन आज भूमि अधिग्रहण के उचित मुआवजे या समर्थन मूल्य की लड़ाई लड़ रहे हैं जिससे धनी किसानों को ही फायदा होता है। गरीब किसान, बटाईदार किसान और कर्जों के बोझ से दबे छोटे और सीमान्त किसानों की समस्याओं के लिए संघर्ष संगठित करने में मौजूदा किसान नेताओं की कोई रुचि नहीं है।

निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के देश में लागू होने के बाद देश में विभिन्न वर्गों की दशाओं में निर्णायक बदलाव आये हैं। किसान और मजदूर वर्ग जो जन संघर्षों की धुरी होते थे, अपनी पुरानी पहचान से अलग, आज बहुत तरह से विभाजित हो चुके हैं और ये विभाजन, कुछ मामलों में ऐसे भी हैं जो एक–दूसरे के हितों से टकराते हैं।

इसलिए जन–संघर्षों को तभी सही दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है जब वर्गों के अन्दर के विभाजन को ठीक से समझा जाये। शहरी, कस्बाई और ग्रामीण नवधनाढ्य वर्ग को ठीक–ठीक पहचाना जाये और जन–संघर्षों में उनकी भूमिका को समझा जाये। वे जनता के दुश्मन हैं या दोस्त, इसकी सही समझ हासिल की जाये।

पहले मध्यम वर्ग बहुत कम संख्या में था। आज नवधनाढ्य वर्ग को मिलाकर ऊपर का वर्ग काफी बड़ा है, मध्यम वर्ग भी बहुत बड़ा है। इतनी बड़ी आबादी धन–सम्पत्ति और प्रचार के साधनों की मालिक है और सत्ता के साथ डटी हुई है।

असंगठित और संगठित क्षेत्र के ठेका मजदूरों को संगठित करने के लिए आज पहले के किसी वक्त की तुलना में ज्यादा ताकत चाहिए। आज प्रचार–प्रसार, संगठन और जन–संघर्षों में भागीदारी पर जोर देने की जरूरत है। आन्दोलन उन इलाकों में अपनी ऊर्जा खो देता है जहाँ थोड़ा–बहुत “पूँजीवादी विकास” हो जाता है। इसलिए हालात को तभी आमूल–चूल रूप से बदला जा सकता है, जब जनता की व्यापक गोलबन्दी और दुर्धर्ष प्रचार–प्रसार के जरिये जन–संघर्षों को आगे बढ़ाया जाये।

आज जनसंघर्षों की ताकत बेहद कमजोर है। इसी कमजोर स्थिति से शुरुआत करनी है। संगठन बनाने और आन्दोलन की परम्परागत रणनीतियों पर गहन विचार–विमर्श करके नयी परिस्थितियों के अनुरूप नयी रणनीतियाँ तैयार करने की जरूरत है। इसके लिए जनता के बीच गम्भीर अध्ययन और सर्वे, करने तथा बहस–मुबाहिसे आयोजित करने की जरूरत होगी।

सिर्फ फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर इत्यादि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर जनता के मद्दों को उठाते रहना और इसे सामाजिक सक्रियता में न बदलना जन संघर्ष से पलायन है। अगर हर जनपक्षधर बुद्धिजीवी सोशल मीडिया के प्लेटफार्म से अलग सक्रिय होकर जनता के बीच सीधे काम करे और जन–सघ्ंार्ष के खतरों को उठाये तभी आमूल–चूल बदलाव लाना सम्भव है।

राष्ट्रवाद और नकली देशभक्ति के उन्माद, गोरक्षा जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों, लिंच–मॉब की प्रतिक्रियावादी राजनीति एजेण्डा सेट करने की दक्षिणपंथी चालों को तभी चुनौती दी जा सकती है जब कोई संगठन जनता के बीच काम करे और उनके बीच प्रतिक्रियावादी राजनीति को बेनकाब करे। इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं।

 
 

 

 

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