अगस्त 2018, अंक 29 में प्रकाशित

रिट्ज में विनिवेश : बहुमूल्य संस्थान की कौड़ियों के भाव नीलामी

केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फरवरी 2018–19 के अपने बजट भाषण में घोषणा की कि सरकार ने इस वित्त वर्ष के लिए 80,000 हजार करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को पाने के लिए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के 24 उद्यमों को चुना है, जिनमें रणनीतिक विनिवेश की प्रक्रिया जल्द शुरू की जायेगी।

वित्त मंत्री जिस विनिवेश के लक्ष्य को हासिल करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, हम भी जाने की यह विनिवेश है क्या? यह क्यों और कैसे होता है? यह किसके फायदे का है और किसके नुकसान का? क्योंकि वर्गीय समाज में एक वर्ग के फायदे की बात दूसरे वर्ग के फायदे की हो यह जरूरी नहीं है।

विनिवेश विभाग की स्थापना 10 दिसम्बर 1999 में की गयी थी। तब से लेकर आज तक इसके नामों को कितनी ही बार बदला गया है। 14 अप्रैल 2016 में इसका नाम एक बार फिर बदलकर लोक एवं परिसम्पत्ति प्रबन्धन विभाग (दीपम) कर दिया गया है। विनिवेश अर्थशास्त्र का शब्द है, जिसका अर्थ है “निवेशित पूँजी को निकालना” यानी किसी भी सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी से कुछ या पूरी पूँजी सरकार द्वारा निकाल लेना यानी उस कम्पनी को बेच देना। इसका मतलब वित्त मन्त्री जिन 24 सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश करने की बात कह रहे हैं, वे उन्हें बेचने वाले हैं।

इन उद्यमों में से अधिकतर सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कम्पनियाँ हैं, जैसे– ओएनजीसी, कोल इण्डिया, हिन्दुस्तान जिंक, एनटीपीसी, स्टील अर्थोरिटी ऑफ इण्डिया(सेल), सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया और रिट्ज आदि। ये कम्पनियाँ सालों से सरकार को लाखों–करोड़ांे का मुनाफा देती आ रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी रिट्ज की शुरुआत 1974 में हुई थी। यह कम्पनी एक कंसल्टेंसी फर्म है, जो टंªासपोर्ट और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में सेवाएँ प्रदान करती है। कम्पनी की आमदनी का बड़ा हिस्सा विदेशों से विदेशी मुद्रा (डॉलर) में आता है। इसका एशिया, अफ्रीका, लातिन अमरीका और मध्य पूर्व के देशों समेत 62 देशों में कारोबार है और विदेशों में 337 प्रोजेक्ट चल रहे हैं। इस कम्पनी को रेलवे, शहरी यातायात, रोड, हाइवे, बन्दरगाह, जहाजरानी, हवाई अड्डे, रोपवे जैसे क्षेत्रों में महारत हासिल है।

सरकार ने इस कम्पनी की 12.6 फीसदी हिस्सेदारी 20 जून को विनिवेश के नाम पर बेच दी। सरकार ने कम्पनी के 2 करोड़ 52 लाख शेयर 180.85 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से बेच दिये। जिससे सरकार को 466 करोड़ रुपये मिले। गौर करने वाली बात है कि जब इस कम्पनी का शेयर 180.85 रुपये में बेचा जा रहा था उस समय इसका बाजार भाव 200 रुपये से ज्यादा था जो 26 जुलाई को बढ़कर 225.50 रुपये हो गया। इसके अलावा सरकार ने खरीदारों को प्रति शेयर 6 रुपये की छूट दी। दोनोंे छूटों को मिलाकर देखंे तो ये सरकार को मिले 466 करोड़ रुपये का लगभग 30 फीसदी बैठता है, यानी 100 करोड़ से भी ज्यादा। सरकार ने पूँजीपतियों के लिए वह काम कर दिया है “फ्री का चन्दन घिस मेरे नंदन”।

चांैकाने वाली बात तो यह है कि कम्पनी का प्रदर्शन शानदार रहा है। इसके लाभ में सालाना 9 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हो रही है। 2014–15 में इसका शुद्ध लाभ 3122.58 करोड़ रुपये का था जो 2016–17 में बढ़कर 3624–16 करोड़ रुपये हो गया।

रिट्ज ने पिछले 3 वर्ष 6 माह में 10986.56 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाकर सरकार को दिया। जो सरकार द्वारा इस कम्पनी की हिस्सेदारी बेचकर मिले 466 करोड़ रुपये से 24 गुना ज्यादा है। सरकार लगातार धन की कमी का रोना रोती रहती है लेकिन इस सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी को बेच देने पर आमादा है।

यह केवल इस कम्पनी का किस्सा नहीं है, यही हाल छोटी–बड़ी सभी सार्वजनिक कम्पनियों का है। अन्तर है तो बस इतना कि कुछ तो इस विनिवेश की प्रक्रिया से गुजर चुकी हैं, कुछ गुजरने वाली हैं। सरकार विनिवेश के नाम पर इस तरह की तमाम कम्पनियों कीे बलि चढ़ाकर कितना विनाश कर चुकी है। इसका अन्दाजा पिछले 4 वर्षों में किये गये विनिवेश से भली–भाँति लगाया जा सकता है।

सरकार इस दौरान हिन्दुस्तान जिंक, ओएनजीसी, कोल इंडिया और ऑयल कोरपोरेशन जैसी मुनाफा देने वाली कम्पनियों में   1.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की हिस्सेदारी बेच चुकी है।

ये केवल पिछले 4 सालों के ही आँकड़े हैं। जबकि विनिवेश की प्रक्रिया पिछले 19 सालों से चल रही है। इसके जरिये अब तक जनता की कितनी सम्पत्ति को लूटकर निजी हाथों में सौंपा गया होगा? इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब तो जनता की सम्पत्ति बेचना देशभक्ति का एक पैमाना हो गया है। जो जितना ज्यादा देश बेचता है वह अपने आप को उतना बड़ा देशभक्त कहता है।

आजादी के बाद जनता ने अपने खून–पसीने की कमाई से इन कम्पनियों को खड़ा किया था। जनता एक वक्त भूखी रही पर इन कम्पनियों को खड़ा करने के लिए जमीन, चन्दा, श्रम और टैक्स समय से पहले देती रही, तब जाकर ये कम्पनियाँ खड़ी की गयी थीं। जनता ने अपनी मेहनत से इन कम्पनियोें को देश का नवरत्न बनाया था जिन्हें जवाहर लाल नेहरू ने आधुनिक भारत का मन्दिर कहा था। आजादी के बाद के 40 सालों में इतना बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र खड़ा किया गया था कि पिछले तीस सालों से सरकारें उसे बेच–बेचकर खा रही हैं फिर भी बचा हुआ है। आज भी इन कम्पनियों का लोहा पूरी दुनिया मानती है, जैसे– ओएनजीसी दुनिया में सबसे ज्यादा समुद्री गहराई से गैस निकालने वाली कम्पनी है। कोल इण्डिया का दुनिया में सबसे ज्यादा कोयले की खान खोजने, कोयला निकालने और सबसे ज्यादा रोजगार देने का रिकार्ड है। स्टील अर्थोरिटी ऑफ इण्डिया(सेल) के पास दुनिया में सबसे बड़ा स्टील का प्लांट है, जिसमें हर रोज करोड़ों टन स्टील का उत्पादन होता है, सूची अन्तहीन है।

विदेशियों ने खरीदना बन्द कर दिया और मुनाफा देने वाली कम्पनियों को बेचने का विरोध हुआ तो सरकार ने एक नया रास्ता निकाला। वह रास्ता है अपनी ही कम्पनी की हिस्सेदारी अपनी ही किसी दूसरी कम्पनी के हाथों बेचना। पिछले दिनों सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड(एचपीसीएल) की 51 फीसदी हिस्सेदारी सार्वजनिक क्षेत्र की दूसरी कम्पनी ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन(ओएनजीसी) को बेची। जिसके लिए ओएनजीसी को बैंकों से 20 करोड़ रुपये का कर्ज लेना पड़ा। सरकार ने कुछ समय बाद ओएनजीसी का यह कहकर विनिवेश कर दिया कि इस पर कर्ज है।

सरकारों द्वारा अपनायी गयी इस प्रकार की नीतियों के कारण ही तो भारत के पूँजीपतियों का दुनिया के शीर्ष अमीरों में नाम है। देश की 80 फीसदी सम्पदा पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों का कब्जा है। नहीं तो दो हाथ–दो पाँव पूँजीपतियों के पास हैं और दो हाथ–दो पाँव हमारे पास हैं। जनता काम करते हुए भी भूखी मर रही है जबकि पूँजीपति खूब अय्याशी करके भी दौलत के अम्बार खड़े कर लेते हैं। यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यूरोप के गुलामोंे की तरह यहाँ भी गुलामों की मण्डियाँ सजेंगी। सारी सम्पदा पर पूँजीपतियों का कब्जा होगा और हम एक मुट्ठी भर अनाज के लिए भी तरसेंगे।

 
 

 

 

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