नवम्बर 2021, अंक 39 में प्रकाशित

अमीरों की अय्यासी का अड्डा बनते हिमालयी इलाकों में तबाही

वर्ष 2021 के मानसून के मौसम में केवल दो हिमालयी राज्यों, उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन की 30 बड़ी घटनाएँ और सैकड़ों छोटी–छोटी घटनाएँ हुई हैं। जुलाई और अगस्त में हुई भूस्खलन की आठ घटनाएँ ‘बेहद भयावह’ श्रेणी की हैं।

इसी मौसम में ऐसा भी समय आया जब उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में 24 घण्टों में भूस्खलन के कारण 462 सड़कें बन्द करनी पड़ी। इन दो राज्यों में भूस्खलन से 50 से ज्यादा लोगों की जान गयी और 60 से ज्यादा घायल हुए हैं। इन घटनाओं में अरबों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हुई है, जिसमें छोटे–बडे पुल, बिजली के खम्भे, सड़क, मकान आदि शामिल हैं। हिमालय में भूस्खलन की घटनाओं में हुई बेताहशा बढ़ोतरी आने वाली भयावह तबाही का एक गम्भीर संकेत है।

“पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ के भूगोल विभाग ने हिमाचल प्रदेश की भूस्खलन की घटनाओं का अध्ययन कर बताया है कि वर्ष 1971–1979 के दौरान भूस्खलन की 164 घटनाएँ सामने आयी थी। वर्ष 1990–1999 में यह संख्या बढ़कर 214 पर पहुँच गयी और वर्ष 2000–2009 के बीच में घटनाएँ दो गुणा से भी ज्यादा बढ़कर 474 हो गयी।

बढ़ते भूमण्डलीय तापन (ग्लोबल वार्मिग) से हिमालयी क्षेत्र की जलवायु में भी परिवर्तन आया है। जर्मनवॉच की रिपोर्ट “क्लाईमेट रिस्क इण्डेक्स 2021” में बताया गया हैं कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों की सूची में भारत का सातवाँ स्थान है। इससे असमय होने वाली वर्षा, भयानक बाढ़ और पहाड़ों पर भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है तथा इनके क्रम में बदलाव आया है। मानवीय गतिविधियों में कुछ बडे़ कारकों को चिन्हित करके और उन पर रोक लगाकर इस तबाही से बचा जा सकता है।

हिमालय जो कुदरती तौर पर नाजुक दौर से गुजर रहा है, अब सैंकड़ों छोटे–बडे़ बाँधों, चैड़ी–चैड़ी सड़कों, डायनामाइट के विस्फोटों, अन्धाधुन्ध चलती दैत्यकार जेसीबी मशीनों, लगातार बढ़ते पर्यटकों का बोझ नहीं झेल पा रहा है।

“नेशनल रजिस्टर ऑफ लार्ज डैम” के अनुसार 1970 के दशक में उत्तराखण्ड में केवल पाँच बडे़ बाँध थे, जिनकी संख्या आज बढ़कर 20 से ज्यादा हो गयी है। अभी भी 11 नदियों पर 32 जलविद्युत परियोजनाओं का निमार्ण चल रहा है। बाँध निर्माण के लिए होने वाली सभी तरह की गतिविधियाँ भू–असन्तुलन और भूस्खलन जैसी बड़ी घटनाओं को जन्म देती हैं। स्थानीय लोग लम्बे समय से अपने पहाड़ों को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं। स्पीति घाटी के लोगों द्वारा शुरू किया गया “नो मिन्स नो” आन्दोलन आज भी जारी है, जो किन्नौर और लाहौल स्पीति जिले में चन्द्रभागा और चिनाब नदी पर बनाये जाने वाले 50 से अधिक पावर प्रोजेक्टों के खिलाफ स्थानीय लोगों द्वारा चलाया जा रहा है। दुनियाभर के प्रगतिशील वैज्ञानिक और पर्यावरण से सम्बन्धित संगठन इस आन्दोलन के समर्थक हैं और स्थानीय लोगों की आवाज में आवाज मिलाकर हिमालय में बाँधों के निर्माण पर पूर्णत: प्रतिबन्ध लगाने की माँग कर रहे हैं।

हिमालय के बिगड़ते हालात को ठीक करने के लिए यहाँ बड़े बाँधों पर पूर्ण प्रतिबन्ध होना तथा सौर उ़र्जा, पवन उ़र्जा जैसे उ़र्जा के वैकल्पिक संसाधनों को बढ़ावा देना जरूरी है। हालाँकि उ़र्जा की बेताहशा बढ़ती माँग को देखते हुए यह मुमकिन नहीं लगता। वास्तव में संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था ने उ़र्जा के बेलगाम उपभोग को बढ़ावा दिया है। स्थायी उपाय के लिए उपभोग को नियंत्रित करना लाजमी है।

पूरे हिमालय में पहले से मौजूद सड़कों के चैड़ीकरण और नयी सड़क परियोजनाओं को सरकारें पर्यावरण सम्बन्धी हिदायतों और सावधानियों की धज्जी उड़ाते हुए हद से ज्यादा बढ़ावा दे रही हैं। हिमाचल प्रदेश में 2014 में राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लम्बाई 2199 किलोमीटर थी जो 4 सालों (2018 तक) में तीन गुणा से ज्यादा बढ़ाकर 6954 किलोमीटर कर दी गयी। पिछले 4 सालों में सड़क परियोजनाओं के निवेश में लगभग 343 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यहाँ 42 सड़क परियोजनाओं पर अभी भी काम चल रहा है। यह तबाही को न्यौता देना नहीं तो और क्या है? आज पूरे हिमालय में दैत्याकार जेसीबी मशीनें हर कहीं नजर आती हैं ऐसा लगता है मानों जेसीबी और हिमालय के बीच में कोई युद्ध छिड़ा हुआ हो।

“उत्तराखण्ड के संाख्यिकी विभाग” ने 2018 में प्रदेश के 28 क्षेत्र चिन्हित करके यहाँ मौजमस्ती करने आने वाले देशी–विदेशी पर्यटकों की संख्या का डाटा जारी किया है। 2018 में यहाँ कुल 3.68 करोड़ पर्यटक आये। 2017 में यह संख्या 3.47 करोड़ और 2016 में 3.17 करोड़ थी। उत्तराखण्ड की कुल आबादी लगभग 1.14 करोड़ है लेकिन यहाँ हर साल कुल आबादी से लगभग 3 गुणा अधिक पर्यटक पहँुच जाते हैं। हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि इसका नतीजा उत्तराखण्ड की तबाही के अलावा कुछ और नहीं हो सकता।

सरकार कहती है कि अधिक पर्यटकों से स्थानीय लोगों को फायदा होगा लेकिन यह सच नहीं है। असली फायदा तो छोटे–बड़े होटलों और रिजॉर्ट्स के मुट्ठी भर मालिक उठाते हैं जबकि ज्यादातर तबाही भयावह गरीबी की शिकार आम जनता के हिस्से आती है। उत्तराखण्ड की आम जनता इस बेलगाम पर्यटन का भारी विरोध कर रही है। चार धाम की धार्मिक यात्रा के नाम पर सरकार द्वारा किये जा रहे सड़कों के चैड़ीकरण का हर जगह विरोध हो रहा है। थोड़ें से लोगों के मुनाफे के लिए पूरे प्रदेश को तबाह करना विकास का नहीं विनाश का मॉडल है। भूटान एक गरीब देश है। उसकी सालाना आय का 70 फीसदी पर्यटन से आता है। इसके बावजूद भूटान सरकार पर्यटकों की संख्या को नियंत्रित करती है। इसके वाबजूद जीवन प्रत्यासा और प्राकृतिक संरक्षण दोनों मामले में भूटान भारत से बहुत बेहतर स्थिति में है।

हिमालय की यह तबाही प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर सिक्कों में बदलने का परिणाम है। मुनाफे की इस हवस ने भारत को ‘क्लाईमेट एमरजेंसी’ के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। हिमालय, जो अभी अपनी जवानी की तरफ बढ़ रहा है उस पर मुनाफे की हवस पूरा करने के लिए किया जा रहा अत्याचार बाल नरसंहार जैसा है। अगर हिमालय तबाह हुआ तो यह लाजिम है कि हमारी आने वाली नस्लें भी तबाही की भेंट चढ़ जायेंगी.

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