मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

चरण पखारो कुम्भ : इन ‘पानी परात को हाथ छुयो नहीं’ स्टाइल

कुम्भ मेले में सफाई कर्मियों की बस्ती के पास से गुजरते हुए आप की निगाहें फटी हुई चादरों या अखबारों पर पड़ी सूखी रोटियों या पूरियों पर चली जाती है। जी, यह सफाई कर्मियों की बस्ती का सबसे परिचित दृश्य है। वे गाँव से भूख लेकर आये हैं और यहाँ से भूख लेकर ही वापस जा रहे हैं। दिहाड़ी बढ़ी नहीं, मिले हुए पैसे से जमादार ने गुण्डा टैक्स वसूल लिया, इस बार के बकाया पैसे नहीं मिले और तो और कम से कम 10 फीसदी लोग ऐसे हैं जिन्हंे पिछले साल के भी पैसे मिले नहीं, राशन कार्ड बने नहीं और अगर बने तो 3 किलो चावल और 2 किलो गेहूँ में पूरे परिवार का पेट भरना नामुमकिन ठहरा––– सैलानी वापस जा रहे हैं, तीर्थयात्रियों के पुण्य का बिल चुका कर। उनकी विदाई एक महान तमाशे के साथ हो रही है–– उनके राष्ट्र का मुखिया चार चुने हुए स्वच्छ ग्राहियों के पैर पखार रहा है–– इन सफाई कर्मियों को अपनी मेहनत से शायद चुनाव का बिल भी चुकाना है।

चाहे आत्महत्या करते किसान हों या पुलवामा के शहीद या उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद के अर्धकुम्भ के सफाई मजदूरय हर मुद्दे पर सरकार का एक ही रुख है–– असली दृश्य को एक बनावटी अलंकार से ढकने की कोशिश। किसान के मुद्दे पर सरकार दोगुनी आय और कर्जमाफी या कांग्रेस की असफलताओं का विराट नैरेटिव तैयार करती है। पुलवामा की दुर्घटना में अपराधिक चूक को वह युद्धोन्माद और राष्ट्रवाद के शोर से ढकना चाहती है। और अब अर्ध कुम्भ के सफाई मजदूर... छवि जीवक प्रधानमंत्री अपने को आधुनिक कृष्ण के रूप में प्रस्तुत करते हुए सफाई कर्मियों के पैर पखार रहे हैं। पार्टी की दलित विरोधी छवि से उसे निकालने की दयनीय कोशिश। भक्तगण कह रहे हैं ‘मास्टर स्ट्रोक’––– और सफाई कर्मचारी आन्दोलन के नायक बेजवाड़ा विल्सन कहते हैं कि यह दलित गरिमा का अपमान है।

तथाकथित कुम्भ में खींची गयी इस ऐतिहासिक फोटो के रेशे पाखंड से बने हुए हैं। आइए, इन रेशों को उघाड़कर देखें। सफाई कर्मी आशादीन जी छतरपुर (मध्य प्रदेश) के निवासी हैं, जिनके दाहिने हाथ की बाह कुम्भ मेले में तोड़ दी गयी, सिर्फ बाल्टी छू जाने मात्र के चलते एक साधु के हमले से। युवा सफाई कर्मी ननकाई पुत्र लोला फतेहपुर की, जगुआ पुत्र जगदेव बाँदा जैसे कई सफाई कर्मियों की ठंड से कुम्भ में मौत हुई और किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली। यहाँ तक की न्यूनतम छोड़िये उन्हंे वह वेतन अभी तक नहीं मिला है, जो मेठ ने गाँव से दिलाने की बात कहकर यहाँ लिवा लाया है और रहने के टेन्ट, इलाज वगैरह की तो बात ही न करिये। उन्हीं सब मूलभूत माँगों को लेकर सफाई कर्मी 26 जनवरी 2019 से मेला अधिकारी के दफ्तर पर जमा हुए थे। मेला अधिकारी विजय किरण आनंद ने पूरी प्रशासनिक ठसक से बताया कि हाँ, आपकी माँग मान ली गयी है। दिहाडी 15 रुपये बढ़ा दी गयी है। सभी सफाई कर्मचारी व्यंग्य से मुस्कुरा दिये। 4200 करोड़ रुपये की गंगा की धार सफाई कर्मियों तक आते–आते सूख गयी।

प्रशासन की बेरुखी ने सफाई कर्मियों का गुस्सा बढ़ा दिया। दिन में 14–14 घंटे खुले आसमान के नीचे ठंड में काम करने के बाद प्रशासन के इस दो टूक जवाब ने उन्हें कुछ कार्रवाई के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया। तय हुआ कि सफाई मजदूर 2 फरवरी को मेला अधिकारी के दफ्तर पर प्रदर्शन करेंगे और ज्ञापन सौंपेंगे। इस प्रदर्शन को सफाई कर्मियों ने उत्साह में ‘हड़ताल’ का नाम दिया और हड़ताल के उत्साह में करीब डेढ़ हजार सफाई मजदूर 2 फरवरी की सुबह 6 बजे से इकट्ठा हो गये। करीब 10 बजे हमें वार्ता के लिए बुलाया गया और हमारे वार्ता कक्ष में पहुँचते ही मेला अधिकारी ने आक्रामक तेवर में हमको रासुका लगाने की धमकी दे डाली। उनका आरोप था कि हमने सफाई मजदूरों को अनावश्यक रूप से भड़काया है, नहीं तो वे बेहद खुश हैं। बहरहाल, मेला अधिकारी आखिरकार जबानी ही सही 6 फरवरी तक हमारी माँगों पर निर्णय लेने के लिए समझौते तक पहुँचे। हमने उनसे कहा कि जो आश्वासन आप हमें दे रहे हैं, चलकर सफाई कर्मचारियों को भी दे दीजिए।

मेला अधिकारी विजय किरण आनंद को शायद अपने दल–बल लाव–लश्कर पर इतना गुमान था कि उन्होंने सोचा कि ‘राष्ट्र’, ‘गंगा–मैया’, ‘पुण्य’, ‘सेवा’ जैसे शब्द उछालेंगे और सफाई कर्मी चुप लगा जाएँगे। लेकिन सफाई कर्मियों ने साफ कह दिया–– “पुण्य से पेट नहीं भरता साहेब।” आधे घंटे तक पसीना–पसीना होते मेला डीएम साहब लोगों को बहलाने की कोशिश करते रहे। लेकिन लोगों ने खूब खरी–खरी सुनाई। अपनी दिहाड़ी से लेकर काम के हालात तक हर बात पर मेला अधिकारी की बात को उन्होंने प्रमाण सहित काटा। मेलाधिकारी खीझ और झल्लाहट से भरकर वहाँ से चले गये। शायद यही खीझ थी जो उन्होंने हम पर उतारी, जब मुझे और सफाई कर्मचारी साथी दिनेश को 7 फरवरी को पुलिस की क्राइम ब्रांच ने एसएसपी के निर्देश पर उठा लिया और 6 घंटा अलग–अलग थानों में डिटेन करने के बाद छोड़ा। उसमें भी रासुका और सख्त कार्रवाई की धमकी शामिल थी।

अब वापस प्रधानमंत्री के चरण पखारते चित्र की ओर लौटें। 5 सफाई कर्मचारी नयी वर्दियों और नयी साड़ियों में और उनके चरण पखारते पी एम साहब। यह एक बन्द कमरा है, जिसमें एक लैब में नियंत्रित ताप और दाब में एक प्रयोग को अंजाम दिया जाता है, क्योंकि बाहर खुले में, मंच पर या भीड़ में यह प्रयोग करने पर वही खतरा है, जिससे मेला अधिकारी साहब रूबरू हो चुके हैं। यानी वहाँ भी वही हो सकता था, तीखे सवालों की झड़ी से स्वयं पी एम मुजस्सम धो दिये गये होते––– चरण की तो बात ही दूर है।  इसलिए यह प्रहसन बड़ी निजता से खेला गया। कौन है यह सफाई कर्मचारी जो सुदामा के रोल में थे––– धीरे–धीरे सामने आ जाएगा।

प्रधानमंत्री जा चुके हैं––– अखबार और टीवी चैनल उनके दलित प्रेम से भीगे–भीगे हैं। लेकिन सफाई कर्मी वहीं हैं, अपनी माँगांे और अपने अंधेरे जीवन के साथ। उनकी वंचना को आप वोट की राजनीति के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं–– लेकिन सुई की नोक जैसे उनके तीखे सवालों से पीछा नहीं छुड़ा सकते। यह पूरा प्रहसन तब और हास्यास्पद बन जाता है जब पता चलता है कि अपने पूरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने सफाई कर्मियों के लिए एक धेला भी खर्च नहीं किया।

 पैर पखारना––– उन्हें नीचा दिखाना है और यह दलित बंधुता नहीं ब्राह्मणवाद है मोदी जी!

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