जुलाई 2019, अंक 32 में प्रकाशित

बाँध भँगे दाओ

(हिन्दी के जाने–माने साहित्यकार रांगेय राघव 1943 में बंगाल के अकाल की रिपोर्टिंग और राहत कार्य के लिए अपने अन्य युवा साथियों के साथ वहाँ गये थे! प्रस्तुत है उस यात्रा के बारे में उनका उत्कृष्ठ रिपोर्ताज जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज के समान है।)

रेल रुक गयी। हम लोग बेहद फुर्ती से सामान उतारने लगे। एक बक्स, एक बिस्तर, दरवाजों के बड़े–बड़े बक्स–– सब कुल एक–डेढ़ मिनट में।

भुइयाँ लम्बी–लम्बी साँसें लेता हुआ मुस्कराता जाता था। वह अपनी असमी उच्चारण की अंग्रेजी में कहने लगा—सब उतार लिया! सब! मगर गाड़ी तो अभी तक खड़ी है!

जसवन्त अभी तक अदद गिन रहा था। उसने एकाएक ही सर उठाकर कहा–– अरे हाँ, गाड़ी तो अभी तक खड़ी है।

हम चारों ने देखा, खिड़की पर खड़े वृद्ध महाशय बार–बार अपनी गलती के लिए क्षमा माँग रहे थे। उन्होंने कहा था, गाड़ी यहाँ केवल एक मिनट रुकेगी। सब हँस पड़े। गाड़ी चली गयी, ठीक दस मिनट रुककर। चला गया वह आफत का गुबार जब आदमी को एक फुट भर जगह के लिए अपनी सत्ता की गवाही पुकार–पुकारकर देनी पड़ती है, जहाँ सब परेशान, सब कठोर मुसाफिर, परवश, अपने–आपके गुलाम।

कलकत्ते की चने की दुकानों से लेकर छोटे पवित्र भोजनालय तक, जहाँ मैले कपडे़ वाले बदबूदार निचुड़े हुए इनसान बैठते हैं, हमने अनेक स्थल देखे थे, किन्तु जो अब पेट की आग धधकने लगी थी उसने याद दिलाया, कल कुछ खा–पी नहीं पाये सिवाय एक प्याले चाय के, तो उसी का यह परिणाम था। मानो यदि मनुष्य खुद लड़कर खाना नहीं खाएगा तो और कोई यहाँ पूछने तक को नहीं।

हम अपने पश्चिमी प्रान्त की याद में थे। यहाँ स्टेशनों पर पूरी तो मिलती थी, मगर साथ में केवल मिठाई, जिनके भाव सुनकर एकाएक विचार बदल देना पड़ता था। चली गयी वह रेल जिसे एक दिन भारतियों ने देवता कहा था, जिसने भारत में एक नवीन जागृति फैलायी थी, और आज जो जीवन की विषमता का फुँकारता अजगर बनकर शून्य को डसती चली जाती थी।

वह भीड़, वह गर्मी, भिंचाव! क्षण–भर के लिए जैसे वह कुष्टिया (नदिया जिले का एक कस्बा) स्वर्ग था। कलकत्ते के विराट वैभव के बाद यह छोटा टाउन जैसे मशीनों के देश के बाद आदमी का निवास स्थान था। विशाल ब्रिटिश साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर होकर भी जैसे सब कुछ ऊपर की तड़क–भड़क था और मैंने देखा, कलकत्ता वास्तव में बंगाल नहीं था।

रेल में से देखी थी वह भागती हुई हरियाली, वही झिलमिलाते ताल, किन्तु अब देखा कि यहाँ हँसने में भी उदासी की एक कराह थी, हिलते हुए पत्तों का–सा एक कम्पन था।

आकाश में सुहावने बादल छा रहे थे। घटाओं का कातिल सुरूर तालों की झिलमिलाती पुतलियों में अक्षय मरोर–सी भरकर बहती हवा में किलकारी बनकर गूँज उठता था। कितना–कितना विश्राम कितनी–कितनी शान्ति, जीवन का अपनापन उस नीरवता में बार–बार जैसे सुबक रहा हो, भीख माँग रहा हो, जहाँ प्यार, प्यार रहकर भी दुराशा था, अलगाव था, हाहाकार था––।

हम लोगों के चारों ओर भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। बच्चे शोर कर रहे थे। दवाओं का डिब्बा और बक्स खोलकर रख दिये गये। एक विद्यार्थी आकर अंग्रेजी में लिखे शब्दों को पढ़ने लगा। अनेकों ने उससे पूछा और हम लोगों के बारे में ज्यों ही सुना, भीड़ में से कुछ व्यक्ति निकल आये।

एक साँवला–सा पतला–दुबला युवक बोल उठा–– आप लोगों के लिए हम यहाँ आये हैं। स्वागत!

अभी वह बात समाप्त भी नहीं कर पाया था कि एक आदमी दौड़ता हुआ आया। एकदम बांग्ला में उसने कहा–– कब शुरू करेंगे यह लोग अपना काम?

जियाउद्दीन ने कहा–– कल।

आदमी करीब–करीब चिल्ला ही उठा–– तब तो कोई फिक्र नहीं। और वह अफसरों को कुछ गन्दी गालियाँ दे उठा।

हम लोग चलने लगे।

युवक कह रहा था–– होस्टल है एक स्कूल का, उसमें आप लोग ठहर जाइए, पास ही है––।

सचमुच ही मैंने देखा, लोग इन डॉक्टर विद्यार्थियों को देखकर एकबारगी निश्चिन्त–से हो गये थे। उनके चेहरों पर जैसे दुख की खुली किताब थी। जो भी इंसानियत का थोड़ा–बहुत माद्दा रखता है, वह आसानी से पढ़ सकता है उस सबको।

साँझ घिर चली थी। बादल झूम उठते थे, जैसे लुढ़कने के अतिरिक्त उनके पास और कोई काम ही न था। घास फरफरा रही थी। समस्त वातावरण में एक कल्लोल लहरा रहा था, जैसे वेदना से भरे श्वास वंशी में गूँज उठते हैं।

हम लोग होस्टल की ओर धीरे–धीरे चल रहे थे। एक व्यक्ति जसवन्त से कह रहा था–– एक समय था जब कुष्टिया कभी हाथ नहीं पसारता था। मगर आज तो वह बात नहीं है। कहने वाला चुप हो गया और मुझे लगा जैसे आते अन्धकार की ढाल पर वह तीव्र बाण टकराकर झनझनाते हुए टूट गये। एका नहीं बाबू, एका नहीं, एका नहीं है। एका नहीं है तभी तो आज कुष्टिया की यह हालत है। ऊँची–ऊँची लहरें जब उठती हैं तब किसकी खेया में पानी नहीं भर जाता? किन्तु क्या बिना पानी निकाले नाव जल में सुरक्षित चल सकती है?

यह प्रश्न आज उसकी सत्ता का प्रश्न है, उसके जीवन की माँग का प्रश्न है।

मोहिनी टेक्सटाइल मिल में एक मजदूर कहने लगा–– हम करीब तीन हजार मजदूर हैं। हमारी अपनी एक यूनियन है, जिसमें हम करीब हजार आदमी हैं।

वह तो बात ही और है–– एक और ने कहा–– सरकार ने कह दिया हम बीज नहीं देंगे, मगर किसानों के संयुक्त मोर्चे के सामने उसको देना पड़ा और बाबू, पूरे ढाई सौ मन में से जब और यूनियनों को अपने–अपने हिसाब से दस–दस मन मिले तब अकेली बाराखड़ा यूनियन को मिले पूरे 75 मन। सरकार आज भी कोई ठोस ‘राशनिंग’ नहीं लगाये है, मगर क्या हाथ पर हाथ धरे रहने से कुछ हो सकेगा? उसका प्रश्न स्वयं उत्तर था। रात आ गयी थी, दुकानों पर धुँधले चिराग जल रहे थे। बादलों के फट जाने से एक झिलमिलाता–सा प्रकाश काँप रहा था।

होस्टल के दरवाजे पर सब लोग लौट गये। छोटे–बड़े अनेक विद्यार्थियों ने आकर हमें घेर लिया। उनके अधरों पर एक तरल हँसी थी। पर आँखों में भय–उदासी की छाया भी एक अद्भुत वास्तविकता थी। दीपक की शिखा जल रही थी। किन्तु निर्धूम नहीं, निश्शंक नहीं। क्षण–भर पहले ही तो वह लौ तूफान में काँप उठी थी। बुझते–बुझते बची थी। मैंने सोचा और समझा कि यह बालक इसलिए नहीं मुस्करा रहे हैं कि उन्हें उस अकाल में भयानक पिशाच से लड़कर बचे रहने का गर्व थाय बल्कि इसलिए कि उनके सामने आज ऐसे मनुष्य खड़े थे, जिन्होंने उनके मनुष्य बने रहने के अधिकार को स्वीकार किया था, उस समय जबकि उनके अपने उनके नहीं थे। जब वह घृणा और स्वार्थ के कारण एक–दूसरे पर विश्वास कर सकने तक की श्रद्धा को भूल चुके थे।

हम लोग हरी–भरी दूब पर बैठे गये। लड़कों ने हमें चारों ओर से घेर लिया। बात चल पड़ी।

हवा मतवाली चल रही थी। आकाश ऊना–ऊना हो उठता था। गोधूलि की तन्द्रा प्रतिध्वनि–सी पृथ्वी पर अलसा उठती थी।

एक आठ या नौ वर्ष का बालक एकाएक कह उठा–– चावल तो मिलता ही नहीं। अकाल में तो हमने बाजरा खाया था, बाजरा। और सब हँस पड़े। सचमुच यह हँसी नहीं थी। जब मनुष्य निराशाओं से घिरा अपने ऊपर रोने के स्थान पर मुस्करा उठता है, तब उसके हृदय का प्रत्येक स्वर गीत बनकर निकलता है। उसकी एक वही वेदना अन्धकार में क्षण–भर का जुगनू बनकर टिमटिमा उठती है।

साँवला युवक कहने लगा–– मार्च, 1942 में कुष्टिया में अन्न–संकट प्रारम्भ हुआ। अप्रैल में कीमत 12 से 20 हो गयी और जून में तो पूरे 40। तीन महीने तक यही हालत रही। बाजार में तो चिड़िया तक के लिए एक दाना चावल नहीं था। 90 फीसदी गाँव वाले और टाउन में आधे से भी ज्यादा लोग अरहर, मसूर और चने की दाल पर जिन्दा थे। लोग घरों से बाहर आते डरते थे कि एक नहीं, दो नहीं, सड़कों पर अनेक भूखे दम तोड़ते होंगे। और डरते थे घर जाते हुए, जहाँ बच्चे, अपने बच्चे भूखे बैठे होंगे। माँ बेटी को देखती थी, पति पत्नी को देखता था। पिता की आँखें डूबते हुए अरमानों–सी बच्चों से टकराकर तड़पकर भीग उठती थीं। किन्तु कोई राह न थी। घर खाली थे। बाजार खाली थे। चारों ओर प्राणों की ममता दोनों हाथ उठाकर हाहाकार कर रही थी। लोग घरों में मरते थे। बाजार में मरते थे। राह में मरते थे। जैसे जीवन का अंतिम ध्येय मुट्ठी–भर अन्न के लिए तड़प–तड़पकर मर जाना ही था। बंगाल का सामाजिक जीवन कच्चे कगार पर खड़ा होकर काँप रहा था और वही लोग जो अकाल के ग्रास बन रहे थे, मरने के बाद पथों पर भीषणता के पग–चिन्ह बने सभ्यता पर, मानवता पर भयानक अट्टहास–सा कर उठते थे।

युवक उत्तेजित था। वह कह रहा था–– हमें आज इस बात में लज्जा नहीं है कि हमने हिदुस्तान से भीख माँगी है। यह जीवन की भीख हमने अपने लिए नहीं माँगी। बंगाल का इसमें अपमान नहीं है। आज हिन्दुस्तानी और बंगाली का भेद नहीं किया जा सकता। आज एक ओर मनुष्य हैं, दूसरी ओर वे नर–पिशाच जो मनुष्य को तड़प–तड़पकर मरते हुए देखकर भी चुप रह जाते हैं और रुपये की खन–खन में अपनी सारी सभ्यता और मनुष्यता को डुबोकर अपनी राक्षसी आँख तरेरा करते हैं। हमारी कराह कोई पराजय नहीं हैं। दुनिया हमें मर जाने देना नहीं चाहती। तभी तो आये हैं आप लोग, कोई आगरे से, कोई असम से। जिस जनता ने आपको भेजा है वह हमारी है, हम उनके हैं और आज जो यह कच्चे चने ढेर लगाये बैठे हैं, कल तड़प–तड़पकर इधर–उधर भागेंगे। हमने इतिहास पढ़ा है। हिन्दुस्तान बार–बार इसलिए गुलाम होता गया कि कोई किसी की मदद नहीं करता था, मगर आज तो वह बात नहीं। यह अकाल जो गुलामी है, जो एक भीषण आक्रमण है, उसे हमें आस्तीन के साँप की तरह कुचलकर खत्म कर देना होगा। आज यदि हमें लज्जा हो सकती है तो यही कि हमारी ही भूमि में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने हमें इस दिशा पर मजबूर कर दिया है। किन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या आपके यहाँ ऐसे नर–पिशाच नहीं हैं? बात इतनी ही है कि संसार में दो ही लोग हैं। एक हम और एक वह और दोनों में कभी सामंजस्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह रुपये से नापना चाहते हैं और कौन कहता है कि हमें उससे बगावत करने का अधिकार नहीं है।

युवक लम्बी साँसें लेने लगा। एक लड़का जो मुसलमान था, कहने लगा–– ठीक कहा है, दादा ने बिलकुल ठीक कहा है––आपको मालूम नहीं, मगर हमने अपनी आँखों से देखा है।

पार साल की बात है–– मई का महीना था।

लोग महाजनों के पास बाजार जाते थे और वे कहते थे–– चावल? कहाँ हैं चावल? कुछ छोड़ती है यह फौज? हम तो कह–कह के मर गये मगर सरकार ने ले–ले जाकर सब डाल ही दिया न उस अनन्त भट्ठी में? और––बाबू, तुम समझते हो कि अगर होता तो मैं तुम्हें नहीं देता? किसके लिए दुकान खोली है, आखिर कोई बाँध के तो ले नहीं जाऊँगा मैं सब?

और जब बहुत खुशामत होती तो महाजन कहता–– क्या करूँ, तुम्हारा तो दुख देखा नहीं जाता अब। मगर लाचार हूँ। कितनी बुरी चीज है यह मजबूरी भी। खैर भाई, व्यापार करने को तो मेरे पास कुछ नहीं। मेरे पास अपने बाल–बच्चों का पेट पालने को आधा मन चावल जरूर ज्यादा है। तुम्हें दे दूँगा। आखिर पुरखों की लाज निभानी ही होगी। मैं तो ऊपर वाले का भरोसा किये हूँ। वह उबारे तो मर्जी उसकी। तुम रात में आना। मगर शर्त है, पता न चले किसी को और देखो, दाम की क्या बात है? जो दाम है उससे एक पैसा कम ही दे देना––।

और इसी तरह बात खुलने लगी। पचासों आदमियों ने जब एक ही बात सुनी तो उन लोगों के कान खड़े हुए।

एक दिन, मई की अँधेरी रात, बीस कदम पर कोई कुछ करे, दिखना असम्भव था। हवा तेजी से चल रही थी। और हमारी अन्न कमेटी के वालंटियर्स ने एक छिपा हुआ गोदाम ढूँढ निकाला। वह महाजन हिन्दू था, पूरे कुष्टिया का एक बहुत ही सम्मानित व्यक्ति। चावल, गेहँू, दाल, उसमें करीब ढाई हजार मन सामान था।

दरोगा मुसलमान था। उसने आते ही परिस्थिति को भाँप लिया। जानते हैं, उसने क्या कहा? कि तुमने बिना इजाजत किसी दूसरे के घर में घुसने की जुर्रत की तो कैसे?––मैं तुम लोगों का चालान करूँगा।

विक्षोभ से भर गया था हमारा मन। 10–15,000 महीना कम नहीं होता बाबू, रिश्वत का। और हड्डी डालकर कुत्ते का मुँह बन्द करके ही तो चोरी की जा सकती है और वह भी तब जब कि घर के पहरेदार सब गाफिल हों।

मैंने देखा, लड़के के होंठ फड़क रहे थे। वह कहता गया––

उस दिन हमने देखा कि हिन्दू–मुसलमान होकर भी हमारा रक्त चूसने के लिए एक हो सकते थे तो क्या हम अपने रक्त को बचाने के लिए अपने जीवन की रक्षा के लिए एक नहीं हो सकते थे? उस दिन हिन्दू हिन्दू नहीं था, न मुसलमान मुसलमान। उस दिन दो वर्ग थे, लुटेरे और भूखे।

वालंटियर्स ने निकलने से इनकार कर दिया। हजारों भूखे इकट्ठे हो गये थे। उनकी जलती आँखों में से जैसे बंगाल की सदियों की दारुण यातना अँगारों की तरह दहक रही थी।

भीड़ ने चिल्लाकर चावल की माँग की। “हम लेंगे चावल, देना होगा हमें चावल। तुम कब्जा करो वर्ना हम करेंगे। अपनी भूख का अधिकार है हमें।”

लगता था, दंगा हो जाएगा। पुलिस तो यह चाहती ही थी। मगर इसी समय दो युवक सामने आये। एक हिन्दू–एक मुसलमान। उन्होंने भीड़ को शान्त किया और एसडीओ के यहाँ गये। और वहाँ से हुक्म लाये।

टेक दिये घुटने नौकरशाही ने, झुका दिया सर जन–बल के आगे, कौन है जो हमें झुका सकेगा? हम बंगाली कभी भी साम्राज्यवाद की तड़क–भड़क से रौब में नहीं आये। हमें गर्व है बाबू, हम भूखे रहकर भी अभी मरे नहीं हैं।

अब हम किसी की आज्ञा नहीं चाहते। तब साँवले युवक ने कहा–– ओह! कैसे हैं हम लोग? आप खाना नहीं खायेंगे क्या? नहाने–धोने की चिन्ता ही नहीं। उठिये न जो कुछ भी हो।

शीतलक्षा नदी में एक किनारे नाव बँधी थी। हम वहीं नहाते। जसवन्त दूर आकाश में एक हल्की लाली देखकर कह रहा था–– वहीं है वह जो कभी नहीं मिटेगी, बंगाल के गगन से जब तक अन्धकार को ध्वस्त करके सूरज नहीं निकलेगा। वहीं है इनके रक्त का रंग, इनका प्राण––।

चाँदनी नदी पर हिलोर उठ रही थी। झाड़ी और नरकुल में सनसनाती हवा एक संगीत–सा भर–भर देती थी, जो लहरों पर नाच उठता था। कुछ ही मील दूर पर पद्मा पर बजरे में बैठकर एक दिन महाकवि ने अपने वह गीत रचे थे, जिनकी गूँज से मानव की आत्मा में नवीन साहस की, धमनी–धमनी में स्फूर्ति भरने वाली सृष्टि हुई थी।

घर, वह शान्त घर चाँदनी में सो रहे थे लेकिन मानव को इतना अवकाश, इतना समय ही नहीं था कि वह भी पानी पर बहती चाँदी–सोने की झिलमिल चादरों से आह्लादित होता। स्त्री यहाँ वैश्या हुई थीं, पुरुष भिखारी, बच्चे घरघराते पशु। समस्त वातावरण से मानो कराहें फूट पड़ती थीं। आज बंगाल की धरती पर एक नयी बात थी। कहते हैं एक दिन दो हजार बरस पहले एक नक्षत्र को देखकर तीन महान देशों से तीन महाविद्वान पैदल चलकर एक चरवाहे के बच्चे के पालने के पास आये थे और वह बच्चा एक दिन बड़ा होकर अपने लिए नहीं, मरते दम तक मानव को क्षमा करता हुआ, अपनी सूली आप उठाकर ले गया था। सोच रहा हूँ कि यह जो डॉक्टर विद्यार्थी हैं, क्या वैसे ही नहीं हैं? यह जो बंग जो आज धराशायी है, क्या यही एक दिन उतना समर्थ नहीं हो जाएगा? नहीं, इस अत्याचार से सर नहीं झुकेंगे, इस दारुण और असह्य यन्त्रणा से भी वह पराजित नहीं होंगे।

लतीफ गा रहा था अपने–आप––

बाँध भँगे दाओ

बाँध भँगे दाओ

बाँध भँगे दाओ

बाँऽऽध!

और जब हिन्दू–मुस्लिम छात्रों ने मिलकर एक स्वर होकर गाया, मुझे लगा जैसे दिशाएँ रुक गयीं, पवन स्तब्ध हो गयी, नदी चुप हो गयी और जो दिगन्त से रवीन्द्र, मोहसिन और राममोहन भयंकर हाहाकार कर रहे थे, वह ठंडी साँस लेने लगे। वह स्वर! जीवन के चीत्कारों पर वह एक वज्र प्रहार था।

लड़के गाते रहे, एक स्वर, एक लय, एक प्राण––

बाँध भँगे दाओ

और मैंने कितना न चाहा कि यह स्वर बंगाल ही नहीं, हिन्दुस्तान ही नहीं, संसार का प्रत्येक दुखी आदमी, दुखी औरत सुने, और सुने––।

लड़के गा रहे थे।

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