मार्च 2019, अंक 31 में प्रकाशित

विश्वविद्यालयों में 13 प्वाइंट रोस्टरर्

भारत के लगभग हर विश्वविद्यालय में 13 प्वाइंट रोस्टर के मुद्दे पर संघर्ष का माहौल बना हुआ है। इस 13 प्वाइंट रोस्टर ने विश्वविद्यालय शिक्षकों को दो खेमों में बाँट दिया है। एक खेमे में इसके समर्थक और दूसरे खेमे में विरोधी हैं। विरोध ने लगभग हर बड़े शहर में आन्दोलन का रूप ले लिया है, जिसका प्रभाव विश्वविद्यालयों से सड़कों तक देखा जा सकता है। छात्र और शिक्षक 13 प्वाइंट रोस्टर के विरोध में और 200 प्वाइंट रोस्टर के पक्ष में हैं।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2017 में शिक्षकों की नियुक्ति एवं पदोन्नति पर फैसला दिया था और कहा था कि अब विश्वविद्यालय को एक इकाई न मानकर विभाग को इकाई माना जाये और अब से विभागवार आरक्षण दिया जाये।

इसके बाद 5 मार्च 2018 को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने आदेश जारी किया कि देश के सभी विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती के लिए इसी नियम का पालन किया जाये। इसके बाद कुछ विश्वविद्यालयों ने रिक्त पदों को भरने के लिए जब विज्ञापन निकाला तो पता चला कि अनारक्षित वर्ग के लिए बहुतायत संख्या में पद हैं, जबकि आरक्षित वर्ग के लिए बहुत कम पद हैं। इस भेदभाव और अन्याय का शिक्षकों और छात्रों ने विरोध करना शुरू कर दिया।

बढ़ते विरोध को देखते हुए सरकार ने 19 जुलाई 2018 को एक आदेश जारी करके सभी भर्तियों पर रोक लगा दी और इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में विशिष्ट अनुमति याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए 22 जनवरी को इस दायर याचिका को खारिज कर दिया। तभी से मसला फिर गरमा गया।

रोस्टर क्या है? रोस्टर नियुक्ति में विभिन्न श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए आरक्षण की एक प्रक्रिया है। 1997 से पहले विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति में कोई आरक्षण नहीं था। हालाँकि ये 1950 में ही लागू होना था। लेकिन 1997 में ही सबसे पहले एससी/एसटी के लिए आरक्षण दिया गया। इसी तरह 2007 में ओबीसी के लिए सीटें आरक्षित की गयीं, जबकि उसे 1993 में ही लागू होना था।

पहले विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती 200 प्वाइंट रोस्टर नियम के अनुसार होती थी, जिसमें विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर 50.5 प्रतिशत पद सामान्य वर्ग, 27 प्रतिशत पद ओबीसी, 15 प्रतिशत पद एससी और 7.5 प्रतिशत पद एसटी के लिए तय होता था। उदाहरण के लिए अगर किसी विश्वविद्यालय में 200 पदों की भर्ती आती है, तो 101 पद सामान्य वर्ग और 99 पद आरक्षित वर्ग का होगा।

अब आखिर 13 प्वाइंट रोस्टर क्या है, जिसको लेकर हर जगह बवाल मचा हुआ है? दरअसल इस नये नियम के अनुसार, अब विश्वविद्यालय को नहीं, बल्कि अलग–अलग विभागों को इकाई मानकर भर्ती के लिए आरक्षित पद तय किये जाते हैं। इसमें 1, 2, 3, 5, 6, 9, 10, 11 तथा 13वाँ रिक्त पद अनारक्षित होगा, जबकि 4, 8, और 12वाँ पद ओबीसी के लिए होगा, 7वाँ पद एससी और 14वाँ पद एसटी के लिए तय होगा।

उदाहरण के लिए मान लीजिए किसी विश्वविद्यालय में 15 रिक्तियाँ निकलती हैं, जिनमें 5 पद हिन्दी में, 2 पद वनस्पति विज्ञान में, 3 पद जीव विज्ञान में, 4 पद गणित में और 1 पद अंग्रेजी में हैं, तो इस नियम के हिसाब से हिन्दी में 4 सीटें सामान्य वर्ग और 1 सीट ओबीसी को, वनस्पति विज्ञान में दोनों पद सामान्य वर्ग को, जीव विज्ञान में तीनों पद सामान्य वर्ग को, गणित में तीन पद सामान्य वर्ग को और एक पद ओबीसी को तथा अंग्रेजी में एक पद सामान्य वर्ग के लिए होगा।

अब तय नियम के हिसाब से आरक्षित वर्ग को 2 सीटें और सामान्य वर्ग को 13 पद मिलेंगे। यानी आपको कानूनन भले ही आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन नये नियम के तहत उसे आपसे छीन भी लिया जा रहा है। ऐसा कम ही होता है कि एक साथ किसी एक विभाग में 14 रिक्तियाँ निकलें और यदि निकलें भी तो नये नियम के हिसाब से सरकार की नौकरियों में एससी/ एसटी–ओबीसी के लिए 49.5 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान का कोई मायने नहीं रह जाता। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के “ऑल इंडिया सर्वे फॉर हायर एजुकेशन” (2017–18) के मुताबिक फिलहाल देश में कुल 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं, जिनमें कुल 11,486 छात्र पढ़ते हैं। इनमें 1,125 प्रोफेसर हैं, जिनमें दलित प्रोफेसर 39 हैं यानी 3.47 प्रतिशत, जो आरक्षण के प्रावधान के अनुसार 15 प्रतिशत होने चाहिए। आदिवासी प्रोफेसर सिर्फ 6 यानी 0.7 प्रतिशत हैं, जो 7.5 प्रतिशत होने चाहिए। जबकि पिछड़ा वर्ग का एक भी प्रोफेसर नहीं है। जो 27 प्रतिशत होने चाहिए। सामान्य वर्ग के 1071 प्रोफेसर यानी 95.2 प्रतिशत हैं, जो 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होने चाहिए। एसोसिएट प्रोफेसर या असिंस्टेंट प्रोफेसर के मामले में भी स्थिति बहुत ही बदतर है।

यही कारण है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों में आरक्षित वर्ग के शिक्षक और शोध छात्र इसका विरोध कर रहे हैं और 200 प्वाइंट रोस्टर के अनुसार भर्ती की माँग कर रहे हैं। अगर इस नियम में बदलाव नहीं किया जाता तो आरक्षित वर्ग के अध्यापकों की संख्या, जो पहले से ही बहुत कम है, आने वाले समय में और कम होती जायेगी।

विश्वविद्यालयों में आरक्षण के लिए जो लड़ाई 1997 तक लड़ी गयी और बहुत सीमित दायरे में जो आरक्षण प्राप्त हुआ, वह इस नियम के द्वारा व्यर्थ साबित होता नजर आ रहा है।

एक तरफ रोजगार–विहीन विकास के चलते रोजगार में भयानक गिरावट आयी है। हालाँकि रोजगार की भीषण समस्या आरक्षण से हल नहीं हो सकती। लेकिन आरक्षण व्यवस्था निश्चय ही समाज में पिछड़े–वंचित वर्ग को व्यवस्था में शामिल करने के लिए अनिवार्य है। 13 प्वाइंट रोस्टर भारत में सदियों से वंचित समुदाय को विश्वविद्यालयों में नियुक्ति से वंचित करने की एक कुटिल चाल है। इसीलिए देश के जागरुक, न्यायपसन्द और प्रबुद्ध लोग जातिगत भावना से ऊपर उठकर इस अन्याय के खिलाफ संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं।

 
 

 

 

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